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दो नाम. दोनों की योग्यताएं एक जैसी. एक बराबर क्वालिफिकेशन. नौकरी से जुड़ी वेबसाइट्स का इस्तेमाल करके दोनों ने 10 महीने के भीतर करीब एक हजार नौकरियों के लिए आवेदन किया. इन आवेदनों पर आए दोनों को मिले सकारात्मक जवाबों में करीब 47 फीसदी का अंतर था.

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ये दोनों प्रोफाइल्स एक खास प्रयोग के लिए तैयार की गई थीं. इनमें सबकुछ एक जैसा था, सिवाय नाम के. एक प्रोफाइल प्रियंका शर्मा के नाम की थी. दूसरी का नाम रखा गया था, हबीबा अली. “लेड बाय फाउंडेशन” के इस प्रयोग के नतीजे बताते हैं कि भारत में एंट्री-लेवल नौकरियों में मुस्लिम महिलाओं के साथ पक्षपात होता है. रिसर्च में पाया गया कि नौकरी के आवेदनों पर आने वाले रेस्पॉन्स रेट में हिंदू महिलाओं के मुकाबले मुस्लिम महिला आवेदकों को करीब आधे ही कॉल बैक आते हैं.

रिसर्च से जुड़ी कुछ बातें :
  • नौकरी के 1,000 आवेदनों पर हिंदू महिला को 208 सकारात्मक जवाब आए. वहीं, मुस्लिम महिला को इससे करीब आधे कम 103 ने संपर्क किया.
  • यह भेदभाव चुनिंदा क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है.
  • भर्ती करने वाले लोग और कंपनियां हिंदू उम्मीदवार के प्रति ज्यादा सहज दिखे. मसलन, जवाब देने वाले रीक्रूटर्स में से 41.3 फीसदी ने प्रियंका को फोन पर संपर्क किया. वहीं हबीबा को केवल 12.6 प्रतिशत रीक्रूटर्स ने फोन किया.
  • उत्तर भारत में पक्षपात की दर पश्चिमी और दक्षिणी भारत के मुकाबले कम दिखी. उत्तर भारत में ये दर जहां 40 प्रतिशत पायी गई, वहीं पश्चिमी भारत से जुड़े नौकरी के अवसरों में भेदभाव की दर 59 प्रतिशत और दक्षिण भारत में 60 फीसदी रही.

क्या बताते हैं आंकड़े?

भारत में कामगारों के बीच महिलाओं की भागीदारी पहले से ही कम है. विश्व बैंक के मुताबिक, भारत दुनिया में सबसे कम महिला कामगारों की हिस्सेदारी वाले देशों में शामिल है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत की राष्ट्रीय श्रमिक संख्या में महिलाओं की संख्या लगभग 15 करोड़ है. देश के समूचे वर्कफोर्स का यह केवल एक तिहाई हिस्सा है. यानी भारत में 15 साल से ऊपर की एक तिहाई से भी कम लड़कियां और महिलाएं या तो नौकरी कर रही हैं, या नौकरी तलाश रही हैं. 2011 की जनगणना के बाद महिलाओं की हिस्सेदारी में और गिरावट ही आई है.

कामकाजी महिलाओं में ज्यादातर कम स्किल वाले सेक्टरों में

भारत में कामकाजी महिलाओं में ज्यादातर कम स्किल वाले सेक्टरों में हैं. मसलन खेती, कारखाना मजदूर और घरों में खाना बनाने और साफ-सफाई जैसे काम. हालांकि लेबर फोर्स में महिलाओं और पुरुषों के बीच का अंतर वैश्विक है. पुरुषों की हिस्सेदारी जहां 80 फीसदी है, वहीं महिलाओं की मौजूदगी लगभग 50 प्रतिशत ही है. ये फर्क वेतन, फॉर्मल नौकरी, करियर आगे बढ़ने और कारोबार बढ़ाने के अवसरों में भी है. परिवार संभालने और बच्चों की परवरिश करने जैसी पारंपरिक भूमिकाएं महिलाओं की हिस्सेदारी और मौके कम करने के बड़े कारण बनते हैं.

अगर केवल महिला हिस्सेदारी को देखें, तो यहां भी अलग-अलग समुदायों की हिस्सेदारी के बीच फर्क दिखता है. जनसंख्या में एक बड़ा वर्ग होने के बावजूद लेबर फोर्स में मुस्लिम महिलाओं की संख्या कम है. नैशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (2009-10) के मुताबिक, भारत में प्रति एक हजार कामकाजी महिलाओं में केवल 101 ही मुस्लिम थीं. फरवरी 2016 में लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने बताया कि बाकी समुदायों के मुकाबले कामकाजी लोगों में मुस्लिमों की हिस्सेदारी सबसे कम है.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, इसका मुख्य कारण है लेबर फोर्स में मुस्लिम महिलाओं की कम उपस्थिति. करीब 70 फीसदी मुस्लिम महिलाएं अपने घर की चारदीवारी के भीतर ही काम करती हैं. वहीं बाकी समुदायों में इसका राष्ट्रीय औसत लगभग 51 प्रतिशत है. शिक्षा के मामले में भी मुस्लिम महिलाएं पीछे हैं. 2011 की जनगणना में महिला साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 65.46 फीसदी था, वहीं मुस्लिम महिलाओं में यह दर लगभग 51 प्रतिशत थी.

पक्षपात से जुड़ी रिपोर्ट्स

भारत में नौकरी के अवसरों में पक्षपात से जुड़ी ऐसी ही एक स्टडी (सुखदेव थोराट और पॉल एटीवेल) 2007 में आई थी. इसमें शोधकर्ताओं ने मुख्य अंग्रेजी अखबारों में आए नौकरी से जुड़े विज्ञापनों पर आवेदन किए. हर विज्ञापन पर तीन पहचानों के साथ आवेदन दिया गया- सवर्ण हिंदू, मुस्लिम और दलित.

शोध में पाया गया कि एंट्री-लेवल नौकरियों के आवेदनों में मुस्लिम आवेदकों को सकारात्मक जवाब मिलने की उम्मीद सवर्ण हिंदुओं के मुकाबले 0.33 प्रतिशत है. दलितों में यह 0.67 फीसदी है. “लेड बाय फाउंडेशन” का प्रयोग महिलाओं के बीच भी सामुदायिक और सांप्रदायिक आधारों पर भेदभाव की तस्वीर दिखाता है.

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