भारत में पिछले कुछ दिनों ऐसी कई घटनायें दिखीं जो टीचर और छात्रों के बीच घटते भरोसे और बदले हालात की तस्वीर दिखा रही हैं. एक तरफ टीचर की पिटाई से छात्रों की मौत हो रही है तो दूसरी तरफ टीचर को गोली मारने वाले छात्र भी हैं.
कुछ दिन पहले ही रायबरेली के एक निजी स्कूल में सातवीं कक्षा के एक छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. छात्र को स्कूल में परीक्षा के दौरान नकल करते पकड़ा गया था. उसे सजा दी गई थी. बच्चे ने अपने सुसाईड नोट में लिखा है कि अध्यापकों के अलावा उसके साथी भी इस बात को लेकर ताने दे रहे थे.
इसी तरह सीतापुर जिले में बारहवीं कक्षा के एक छात्र ने कॉलेज के प्रिंसिपल पर कॉलेज परिसर में ही गोली चला दी. प्रिंसिपल को कई गोलियां लगीं और वो लखनऊ के एक अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ रहे हैं. छात्रों के दो गुटों के विवाद को सुलझाने के दौरान प्रिंसिपल रामसिंह वर्मा ने इस छात्र को पीट दिया था जिससे वो नाराज था.
लोगों का ध्यान तब इनकी तरफ जाता है जब ये कोई बड़ा रूप ले
ऐसी घटनाएं देश के हर कोने में आये दिन हो रही हैं जिनमें पीड़ित और प्रताड़ित दोनों कभी छात्र तो कभी टीचर होते हैं. ऐसी घटनाएं तो खूब हो रही हैं लेकिन लोगों का ध्यान तब इनकी तरफ जाता है जब ये कोई बड़ा रूप ले लें.
स्कूली शिक्षा पर लंबे समय से काम कर रहे शिक्षाविद संजीव राय कहते हैं, “कुछ घटनाएं अपने हिंसक प्रभाव के कारण सामने आ जाती हैं लेकिन अक्सर ऐसी घटनाओं का पता नहीं चलता. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह ये है कि लोग अध्यापकों से उम्मीद तो बहुत करते हैं लेकिन ना तो छात्र अध्यापकों का सम्मान करते हैं और ना ही छात्रों के अभिभावक. सम्मान तो छोड़िये दिल्ली के ग्रामीण इलाकों के सरकारी स्कूलों के अध्यापक तो खौफ में रहते हैं क्योंकि अनुशासन बनाने पर छात्र मारपीट, गाली-गलौच और यहां तक कि यौन उत्पीड़न के आरोप तक की धमकी देते हैं.”
मानसिक दबाव,या प्रशिक्षण की कमी
राय का यह भी कहना है कि अध्यापक भी कई बार आपा खो जाते हैं और यह भूल जाते हैं कि अब वो पुराने जमाने के शिक्षक नहीं हैं, अब छात्रों को मारने-पीटने और यहां तक कि डांटने के खिलाफ भी कानून बन चुके हैं, “इन कानूनों का दुरुपयोग करने के लिए अक्सर अभिभावक तैयार बैठे रहते हैं.”
इन हिंसक संघर्षों के कारणों के पीछे एक मुद्दा तो मानसिक स्वास्थ्य का ही है. राय के मुताबिक “टीचर बहुत दबाव में रहते हैं. 9वीं से 12वीं तक के बच्चों को नियंत्रित करना बेहद चुनौतीपूर्ण है. यह आयु ऐसी है कि बच्चों में कई तरह की उच्छृंखलता आ ही जाती है लेकिन यह टीचर के मानसिक स्वास्थ्य और प्रशिक्षण पर निर्भर करता है कि इनके साथ कैसे पेश आना है और इन्हें कैसे अनुशासन में ढालना है.”
राय के मुताबिक यह भी देखना चाहिए कि समाज में टीचर की क्या स्थिति है. लोग अपना अधिकार तो समझते हैं लेकिन दायित्व नहीं. टीचर से कोई गलती हो गई तो स्कूल प्रशासन से लेकर अभिभावक तक सभी उसके ऊपर हावी हो जाते हैं. उसके साथ कोई नहीं खड़ा होता, समाज भी नहीं.
स्कूलों में भेदभाव और उत्पीड़न
ऐसी घटनाएं सरकारी और निजी दोनों तरह के स्कूलों में हो रही हैं, हालांकि निजी स्कूलों की घटनाएं कम सामने आती हैं. गाजियाबाद के एक निजी स्कूल में पढ़ाने वाली टीचर नाम नहीं छापने की शर्त पर कहती हैं कि महानगरों के स्कूलों में भेदभाव की स्थिति और पैमाना अलग है. उन्होंने बताया, “आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में प्रवेश पाने वाले छात्रों के साथ अक्सर भेदभाव होता है और उनका उत्पीड़न भी होता है. चूंकि इनके अभिभावक गरीब और कमजोर वर्ग के होते हैं इसलिए ये अक्सर शिकायत भी नहीं कर पाते.”
संजीव राय कहते हैं, “सामाजिक भेदभाव तो एक अलग मुद्दा है ही. वो पहले भी था लेकिन उसमें छात्र या उनके परिजनों की ओर से इस तरह से प्रतिवाद नहीं होता था. आज छात्रों को भी और उनके अभिभावकों को उत्पीड़न के खिलाफ बने कानूनों की जानकारी है. सबसे जरूरी यह है कि ऐसे उग्र स्वभाव के शिक्षकों और छात्रों दोनों की ही काउंसिलिंग होनी चाहिए ताकि ऐसी स्थितियां ना आयें.”
तकनीक बढ़ी, मूल्य नहीं बदले
बीते दशकों में तकनीक का दखल जिस तरह से हमारे जीवन में बढ़ा है उसने भी कई चीजों को सिरे से बदल दिया है. कोरोना काल में तकनीक तो पढ़ाई का मूलभूत जरिया बन गया. इन सब का असर भी टीचर और छात्रों की मनस्थिति पर पड़ा है. दिल्ली के एक कॉलेज में समाजशास्त्र पढ़ाने वाले डॉक्टर देवेश कुमार कहते हैं, “तकनीक में बढ़ोत्तरी के साथ मूल्यों में बदलाव तो आए नहीं हैं. बहस कितनी भी हो लेकिन सामाजिक स्तर और भेदभाव घटा नहीं बल्कि बढ़ा ही है.”
सवाल सिर्फ भेदभाव का ही नहीं है बल्कि और भी कई चीजें हैं. कई सरकारी स्कूलों में तो अध्यापकों को बच्चों को गाली तक देते देखा गया है. ऐसे में बच्चे कैसे अपने गुरुओं का सम्मान करें. दूसरी बात यह भी है कि बच्चों पर परीक्षा में अच्छे नंबर लाने का इतना दबाव रहता है कि वो भी बचपन से मानसिक रोगों के शिकार हो रहे हैं.
दंड की सीमा का एहसास होना चाहिए
“बदलाव शिक्षा पद्धति में भी होनी चाहिए ताकि बच्चों में पढ़ाई की प्रवृत्ति तो विकसित हो लेकिन उन पर दबाव ना रहे. एक बात और है. कोविड के दौरान जिस तरह से बच्चे भी मोबाइल फोन और टीवी के आदी हुए हैं, उसकी वजह से भी उनमें मानसिक बदलाव आ रहे हैं और वो जल्दी आपा खो रहे हैं.”
समाजशास्त्री मान रहे हैं कि स्कूल में होने वाली घटनाओं को रोकने के लिए ना सिर्फ छात्रों के बल्कि अध्यापकों के सुधार की भी जरूरत होगी. दूसरी ओर, छात्रों और अभिभावकों को भी यह समझना चाहिए कि अध्यापक यदि किसी छात्र को दंड दे रहा है तो वह उसके हित में ही दे रहा होगा. हां, यह जरूर है कि अध्यापक को भी दंड की सीमा का एहसास होना चाहिए.
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