उच्च न्यायालय ने दहेज प्रताड़ना के मामलों के साथ दुष्कर्म व छेड़छाड के बढ़ते आरोपों पर चिंता जताते हुए कहा कि ऐसे मामले दर्ज करने की प्रथा पर अंकुश लगाने की जरूरत है। अदालत ने यह टिप्पणी ससुर के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करते हुए की। दरअसल मामले में महिला ने आरोपियों से समझोता करते हुए अपने पूर्व के बयान से मुकरते हुए कहा कि उसके साथ दुष्कर्म नहीं हुआ बल्कि प्रयास किया गया था।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि अब आईपीसी की धारा 376 और 354 का उपयोग धारा 498-ए आईपीसी के साथ किया जा रहा है, जिसमें बाद में समझौता किया जाता है और रद्द करने के लिए इस अदालत में लाया जाता है, इस प्रथा को रोकने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सामान्य परिस्थितियों में आईपीसी की धारा 376 के तहत मामलों को रद्द नहीं किया जाना चाहिए और इसे समाज के खिलाफ अपराध के रूप में देखा जाना चाहिए। अदालत ने कहा इस वैवाहिक विवाद मामले की अजीबोगरीब परिस्थितियों में जहाँ महिला ने कहा कि उसका भविष्य प्राथमिकी को रद्द करने पर निर्भर करता है और उससे दुष्कर्म नहीं किया गया था। यह न्याय के हित में होगा कि यदि प्राथमिकी पूरी तरह से रद्द कर दिया जाए।
मामला धारा 376/377/498-ए के तहत दर्ज किया गया था। आईपीसी की धारा 376 के तहत चार्जशीट दाखिल की गई, लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 164 के तहत दिए गए अपने बयान में शिकायतकर्ता ने कहा कि ससुर ने उसके साथ दुष्कर्म का प्रयास किया गया था। शिकायतकर्ता ने अदालत को बताया कि उसने अब अपनी मर्जी से समझौता किया है और उसे प्राथमिकी रद्द करने में कोई आपत्ति नहीं है।
किसी भी मामले का समाप्त होना स्वागत योग्य कदम
न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि किसी भी मामले का समाप्त होना स्वागत योग्य कदम है क्योंकि इससे अदालतों में लंबित मामलों में कमी आती है। अदालत ने शिकायतकर्ता द्वारा उठाए गए रुख की सराहना की और कहा शिकायतकर्ता एक युवा महिला है जो अपने लिए एक उज्ज्वल भविष्य की तलाश कर रही है, जो एक समझौते के अनुसार वर्तमान प्राथमिकी को रद्द करने पर निर्भर करती है।अदालत ने कहा महिला ने माना है कि उसने अपनी स्वतंत्र इच्छा से और बिना किसी दबाव, दबाव या धमकी के समझौता किया है। महिला ने कहा कि यह एक पारिवारिक विवाद है और वह नहीं चाहती कि इसे किसी भी न्यायालय में किसी भी रूप में पेश किया जाए।
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