झारखंड के आदिवासी बहुल गांवों में दशहरा से पहले एक अद्वितीय और प्राचीन परंपरा का पालन किया जाता है, जिसे “दसाई नृत्य” कहा जाता है। यह नृत्य उनकी समृद्ध संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है और उसका आदिकाल से चलने वाला परंपरागत नृत्य कला है।
इस नृत्य के दौरान, पुरुष अपने माथे पर मोर के पंख सजाते हैं और महिला बनकर नृत्य करते हैं। यह परंपरा दसहरे से पांच दिन पहले शुरू होती है और नृत्यकार दौरान विभिन्न पारंपरिक वाद्ययंत्रों पर भी नृत्य करते हैं।
दसाई नृत्य के दौरान, सूखे कद्दू से बने एक विशेष प्रकार के वाद्ययंत्र जिन्हें “भुआंग” कहा जाता है, बजाए जाते हैं। इससे मधुर और दिलकश ध्वनि निकलती है, और यह नृत्य कला को अद्वितीय बनाता है। इसके अलावा, थाली और घंटी भी उपयोग की जाती हैं, और जब ये सभी वाद्ययंत्र साथ में बजते हैं, तो यह नृत्य कला आपकी आवाज को और भी रसभरी बनाता है।
इस नृत्य कला का दौरान, पुरुष साड़ी पहनकर महिलाओं का रूप धारण करते हैं और इसके साथ ही वे घर-घर जाते हैं, जिससे उनका संदेश सभी तक पहुँच सकता है। यह नृत्य क्रांतिकारियों को ढूंढने के लिए हुआ था जब आक्रमणकारियों ने आदिवासी समुदाय के क्रांतिकारियों को बंदी बना लिया था। इसके परिणामस्वरूप, आदिवासी पुरुष अपने व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए महिला रूप में छिपकर नृत्य करते हुए उनकी सहायता करने के लिए अलग-अलग टोलियों में जाते थे। इस नृत्य के माध्यम से वे अपने दुख को और स्पष्टीकरण करते थे, जिससे दुख का प्रतीक होता है।
दसाई नृत्य कला एक महत्वपूर्ण प्राचीन परंपरा है जो आदिवासी समुदाय की धरोहर का हिस्सा है, और इसके माध्यम से वे अपनी समृद्ध संस्कृति को सजीव रखते हैं।
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