GULAMGIRI
एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान के साथ गुलामों की तरह व्यवहार करना सभ्यता के सबसे शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की लगभग सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. यूरोप में जहां गुलामों-दासों की खरीद-फरोख़्त का शर्मनाक इतिहास रहा है, वहीं भारत में जातिप्रथा के कारण पैदा हुआ जबरदस्त इंसानभेद आज तक बना हुआ है. ‘गुलामगिरी’ इसी भेद-भाव की बुनियाद पर चोट करने वाली किताब है जिसे 19वीं सदी के महान भारतीय विचारक, समाजसेवी और क्रांतिकारी समाज-सुधारक ज्योतिराव गोविन्दराव फूले (ज्योतिबा फूले) ने लिखा है.
महान भारतीय विचारक, समाजसेवी और क्रांतिकारी समाज-सुधारक ज्योतिराव गोविन्दराव फूले (ज्योतिबा फूले) ने इस पुस्तक के माध्यम से मनुवादी सोच को भारत का कलंक बताया.
गुलामगिरी’ दो पात्रों (धोंडिराव और ज्योतिराव) के सवाल-जवाबों के माध्यम से जाति और धर्म की तार्किक व्याख्या की कोशिश करती है. एक जगह हिंदू धर्म के मत्स्य अवतार की सच्चाई पर बात करते हुए ज्योतिराव धोंडिराव से कहते हैं – ‘उसके बारे में तू ही सोच कि मनुष्य और मछली की इन्द्रियों में, आहार में, मैथुन में और पैदा होने की प्रक्रिया में कितना अन्तर है? उसी प्रकार उनके मस्तिष्क में, मेधा में, कलेजे में ,फेफड़े में, अंतड़ियों में, गर्भ पालने-पोसने की जगह में, और प्रसूति होने के मार्ग में कितना चमत्कारिक अन्तर है… नारी स्वाभाविक रूप से एक ही बच्चे को जन्म देती है. लेकिन मछली सबसे पहले कई अण्डे देती है…कुछ मूर्ख लोगों ने मौका मिलते ही अपने प्राचीन ग्रन्थों में इस तरह की काल्पनिक कथाओं को घुसेड़ दिया होगा.’
इसमें उन्होंने धार्मिक हिंदू ग्रंथों, अवतारों और देवताओं के साथ-साथ ब्राह्मणों और सामंतों के वर्चस्व को नए सिरे से परिभाषित किया है. साथ ही अंग्रेजों के कामकाज की भी जातिव्यवस्था के चश्मे से व्याख्या की है. 1873 में लिखी गई इस किताब का उद्देश्य दलितों और अस्पृश्यों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के झूठे दंभ से परिचित कराना था. इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फूले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकलकर, आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस मायने में यह किताब काफी महत्वपूर्ण है कि यहां इंसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कटघरे में खड़ा किया गया है.
देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी से मुक्त हुए.
एक जगह ज्योतिबा लिखते हैं – ‘जैसे किसी व्यक्ति ने बहुत दिनों तक जेल के अन्दर अपनी जिन्दगी गुजार दी हो, वह कैदी अपने साथी मित्रों से, बीवी-बच्चों से, भाई-बहनों से मिलने के लिए या स्वतन्त्र रूप से आजाद पंछी की तरह घूमने के लिए बड़ी उत्सुकता से जेल से मुक्त होने के दिन का इन्तजार करता है, उसी तरह का इन्तजार इन लोगों को भी बेसब्री से होना स्वाभाविक ही है. ऐसे समय बड़ी खुशकिस्मती कहिए कि ईश्वर को उन पर दया आयी. इस देश में अंग्रेजों की सत्ता कायम हुई और उनके द्वारा ये लोग ब्राह्मणशाही की शारीरिक गुलामी से मुक्त हुए. इसीलिए ये लोग अंग्रेजी राजसत्ता का शुक्रिया अदा करते हैं… यदि वे यहां न आते तो ब्राह्मणों ने, ब्राह्मणशाही ने उन्हें कभी सम्मान और स्वतन्त्रता की जिन्दगी न गुजारने दी होती.’
ज्योतिबा फूले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इसके सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं समझते थे.
अंग्रेजों के शासन से मुक्ति की इच्छा और संघर्ष के बारे में हमें बहुत कुछ पता है, लेकिन हमें यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंग्रेजों को ब्राह्मणशाही से मुक्तिदाता के तौर पर भी देख रहा था. ज्योतिबा फूले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इसके सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं समझते थे.
भारत में जातिप्रथा के कारण पैदा हुआ जबरदस्त इंसानभेद आज तक बना हुआ है.
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