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किसी बेहद संगीन मामले को हमारे सम्माननीय प्रधानमंत्री कैसे मज़ाक में बदल सकते हैं- ये अहमदाबाद धमाकों को लेकर उनकी टिप्पणी ने बताया है. 2008 के इन धमाकों में पिछले दिनों सज़ा सुनाई गई है- 38 लोगों को फांसी की सज़ा. इन धमाकों में 49 लोग आधिकारिक तौर पर मारे गए थे. यह बहुत गंभीर मामला है. बहुत सारे परिवारों के उजड़ने का, आतंकवाद के सिहरा देने वाले हमले और सिलसिले का, और भारतीय राष्ट्र राज्य की सुरक्षा का. यह मज़ाक नहीं है.
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इतनी बड़ी घटना को मज़ाक में बदल डाला
लेकिन प्रधानमंत्री ने इतनी बड़ी घटना को मज़ाक में बदल डाला. यूपी के हरदोई में अपने भाषण में उन्होंने कह दिया कि इन धमाकों के लिए साइकिलों में बम बांधे गए थे. सवाल उठाया कि आतंकवादियों ने साइकिल ही क्यों चुनी? हमला वे समाजवादी पार्टी पर करना चाहते थे, साइकिल पर कर बैठे जो इस देश में सबसे गरीब लोगों की सबसे भरोसेमंद सवारी रही है. यही नहीं, उन्होंने आतंकवाद जैसे बेहद संगीन मसले को चुनावी राजनीति से जोड़कर जो कुछ कहा-किया, उसे प्रधानमंत्री की मर्यादा का ख़याल रखते हुए भी बहुत दुखी होकर ओछेपन से कम कुछ भी नहीं कहा जा सकता.
2008 में जब ये धमाके हुए थे तो प्रधानमंत्री गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. 2002 की हिंसा ने उनकी हिल-डुल रही कुर्सी को हिंदू वोटों की सीमेंट से जोड़ और जड़ दिया था.
कुछ सवाल तो पुलिस और प्रशासन पर
उसके बाद से अहमदाबाद कई बार अशांत रहा. 2008 के बम धमाकों को लेकिन किसी ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की नाकामी नहीं बताया. राज्य के सबसे प्रमुख शहर में एक साथ डेढ़ दर्जन धमाके हो जाएं तो कुछ सवाल तो पुलिस और प्रशासन पर उठते ही हैं. लेकिन ये सवाल नहीं उठाए गए, क्योंकि तब भी राजनीति में इतना शील बाक़ी था कि बहते हुए ख़ून और टभकते हुए ज़ख़्मों के बीच आरोप-प्रत्यारोप का खेल न खेला जाए. किसी ने नरेंद्र मोदी से इस्तीफ़ा नहीं मांगा. किसी ने यह नहीं पूछा कि आतंकियों ने अहमदाबाद को ही निशाना क्यों बनाया. तब दिल्ली में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे जो कम बोलते थे और बहुत सोच-समझ कर बोलते थे.
तनाव बनाने में कामयाब होते
लेकिन 2008 से 2022 तक आते-आते माहौल बदल चुका है, प्रधानमंत्री बदल चुका है और प्रधानमंत्री की भाषा बदल चुकी है. मुख्यमंत्री रहते हुए भी नरेंद्र मोदी भाषिक शील के लिए नहीं जाने गए. कभी किसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि कुत्ते का पिल्ला भी गाड़ी के नीचे आ जाता है तो दुख होता है और कभी किसी भाषण में पचास करोड़ की गर्ल फ्रेंड का ज़िक्र किया. प्रधानमंत्री रहते लोकसभा में उन्होंने रेणुका चौधरी की हंसी की तुलना शूर्पनखा से की. बहुत सारे लोग प्रधानमंत्री की भाषा और उनके भाषणों के प्रशंसक हैं.
इसमें शक नहीं कि नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में एक नाटकीयता अर्जित की है- वे बहुत हल्के से कुछ कह कर एक तनाव बनाने में कामयाब होते हैं और फिर आगे मुस्कुराते हुए अपनी बात का रहस्य खोलते हैं. लेकिन ध्यान से सुनिए तो यह ताकत के गुरूर से भरी भाषा लगती है. इसमें विनम्रता और आत्मनिरीक्षण की जगह नहीं दिखती. इसमें तर्क की वैज्ञानिकता नहीं, तर्कातीत होने का दंभ दिखता है. अगर वह उनके प्रशंसकों और भक्तों को अच्छी लगती है तो इसमें हम कुछ अपने बदलते हुए समाज का मन-मिज़ाज भी पढ़ सकते हैं.
संवेदनाओं का शव है जिसे प्रधानमंत्री की थकी हुई भाषा ढो रही
लेकिन यूपी के हरदोई में प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा, वह तो बिल्कुल अप्रत्याशित था- निहायत संवेदनहीन और अतार्किक. उसमें वह हास्यबोध भी नहीं था जिसका प्रदर्शन करने की कोशिश कभी-कभी प्रधानमंत्री करते हैं. वह एक विद्रूप था- आतंक की एक संगीन घटना को अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की बीमार इच्छा. कह सकते हैं कि यह बीजेपी की राजनीति में नई चीज़ नहीं है. 2002 में जब प्रशासन यह सलाह दे रहा था कि गोधरा में मारे गए लोगों के शव सीधे उनके घर भेज दिए जाएं, न कि अहमदाबाद लाए जाएं, क्योंकि इससे ग़ैरजरूरी तनाव पैदा होगा, तब बीजेपी ने शव लाने का और उसके साथ दर्शन-प्रदर्शन कराने का फ़ैसला किया था. वह शवयात्रा आने वाले दिनों में न जाने कितनी शवयात्राओं की वजह बनी, इसका हिसाब ठीक-ठीक नहीं लगाया जा सकता. अब संवेदनाओं का शव है जिसे प्रधानमंत्री की थकी हुई भाषा ढो रही है.
बीमार सोच से कम कुछ भी नहीं
हाल के दिनों में यह दूसरा मौका है जब प्रधानमंत्री ने मौत या त्रासदी को ऐसा राजनीतिक रंग देने की कोशिश की है. बिल्कुल हाल में संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने महाराष्ट्र सरकार पर आरोप लगाया कि उन्होंने जान-बूझ कर कोरोना फैलाया, कि उन्होंने मज़दूरों को पैसे देकर अपने-अपने घरों में लौटने को कहा ताकि वे अपने साथ बीमारी ले जाएं.
यह एक बीमार बयान था. प्रधानमंत्री के स्तर पर दिया जा रहा था तो वह हमारी राजनीति में घुसपैठ कर आए किसी नए वायरस की पहचान करा रहा था. प्रधानमंत्री यह भूल गए कि जिस रात उन्होंने लोगों से घर में रहने की अपील की थी उसी रात उनका खाता-पीता भक्त संसार अपना कैश, क्रेडिट कार्ड या डेबिट कार्ड ले देश भर की दुकानों और मॉलों को खाली करने निकल पड़ा था ताकि लॉकडाउन में उसका घर भरा रहे. प्रधानमंत्री इनसे नाराज नहीं थे, वे उन मजदूरों से नाराज़ थे जो रातों-रात बेघर और बेकार बना दिए गए थे और मजबूरी में पैदल या साइकिल लेकर अपने घर जाने की कोशिश में थे. इन लोगों के लिए दिल्ली या मुंबई की सरकारों ने कुछ मानवीय ढंग से सोचा तो वह कोविड को फैलाने की साज़िश था- यह एक बीमार सोच से कम कुछ भी नहीं.
अब साइकिल इस बीमार सोच की शिकार बनी है. उसे आतंकवाद से जोड़ा जा रहा है. इस देश में धीरे-धीरे हर सरकार विरोधी, हर बाज़ार विरोधी आतंकवादी, नक्सली, माओवादी, विकास-विरोधी, देशद्रोही बताया जा रहा है. अब साइकिल भी आतंकवादी हो गई है. देखें, साइकिल इसका क्या जवाब देती है.
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