मध्यप्रदेश में हाल ही में वायरल हुई एक बुजुर्ग की अमानवीय पिटाई और बाद में उसकी मौत हो जाने की घटना ने हमारे समाज में बुजुर्गों के साथ किए जाने वाले व्यवहार को बहुत ही पीड़ादायी तरीके से उजागर किया है. यह घटना नीमच जिले में हुई और उसका जो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ उसमें देखा जा सकता है कि सड़क किनारे बैठे एक बुजुर्ग से नाम पता पूछते हुए एक व्यक्ति बुरी तरह मारपीट करता हुआ आधार कार्ड मांग रहा है. समुचित जवाब न मिलने पर वह व्यक्ति बुजुर्ग के गालों पर तड़ातड़ थप्पड़ मारता रहता है. घटना के बाद यह खबर भी आती है कि उस वृद्ध की मृत्यु हो गई.
यह घटना इंसानियत के माथे पर कलंक है और एक सभ्य समाज के तौर पर यह बात जरूर होनी चाहिए कि क्या हम बुजुर्गों से व्यवहार करने का तरीका भूलते जा रहे हैं. क्योंकि कोई भी सभ्य समाज ऐसे व्यवहार की न तो इजाजत देता है और न ही इसे स्वीकार कर सकता है.
समाज में संयुक्त परिवारों का लगातार खत्म होना
दरअसल, बुजुर्गों के साथ इन दिनों होने वाले दुर्व्यवहार का एक बहुत बडा कारण समाज में संयुक्त परिवारों का लगातार खत्म होते जाना भी है. संयुक्त परिवारों में बच्चे हमेशा परिवार के बुजुर्गों के साथ रहते थे. वहां नई और पुरानी पीढी का सतत संपर्क रहता था. इसके चलते बच्चों में बचपन से ही बुजुर्गों के प्रति सम्मान की भावना विकसित होती चलती थी. भले ही दादा-दादी, नाना-नानी या ताऊ-ताई जैसे संबोधनों के साथ बुजुर्गों का सम्मान करना सीखते थे लेकिन इन संबोधनों से परे भी उनके भीतर यह भाव जाग्रत होता चलता था कि जो उम्र में हमसे बडे हैं हमें उनका सम्मान और लिहाज करना ही है.
लेकिन संयुक्त परिवारों के विघटन ने पारिवारिक रिश्तों के साथ साथ समाज के इस संस्कार को भी तोडा है. अब चूंकि बच्चों के आसपास सिर्फ उनके अपेक्षाकृत युवा माता-पिता ही होते हैं इसलिए बुजुर्गों की अहमियत और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहार का कोई प्रशिक्षण या संस्कार उन्हें नहीं मिल पाता जो संयुक्त परिवार में सहज ही उपलब्ध हो जाया करता था.
मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ साल पहले बुजुर्गों के लिए एक बहुत ही भावनात्मक पहल करते हुए तीर्थदर्शन योजना शुरू की थी. इसमें सरकार बुजुर्गों को उनकी इच्छानुसार तीर्थदर्शन कराने का पूरा इंतजाम अपनी ओर से करती है. इस योजना के शुरू होने के बाद मेरी एक वृद्ध महिला से बात हुई तो उनका जवाब दिल को हिला देने वाला था. उनका कहना था- ‘’बेटा घर के बच्चे ठीक से रोटी तक तो देते नहीं, फिर तीरथ की कौन पूछे… भला हो सरकार का कि उसने हमारी यह इच्छा पूरी की…’’
हमारा पूरा समाज बुजुर्गों के प्रति कैसा भाव रखता है?
ये घटनाएं बताती हैं कि हम और हमारा पूरा समाज बुजुर्गों के प्रति कैसा भाव रखता है. ट्रेन हो या बस या फिर ऐसे ही कोई सार्वजनिक स्थल, वहां ऐसी घटनाएं दिख जाना आम बात है जहां बुजुर्ग या महिलाएं खडी हों और युवा या सक्षम व्यक्ति अपनी जगह से टस से मस न हो रहे हों. और बुजुर्ग या महिलाओं की बात ही क्यों करें, यह व्यवहार तो दिव्यांगों तक के साथ होता दिख जाता है. आजादी का अमृत महोत्सव मनाते 75 साल के आजाद भारत ने कभी नहीं सोचा होगा कि उसके भीतर रहने वाले उसके अपने ही लोग 75 साल के हो चुके लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करेंगे या उनकी ऐसी दुर्दशा होगी. आज के बुजुर्ग अपने घर-परिवार में सक्षम बेटे-बेटियों के होते हुए भी वृद्धाश्रमों में रहने को मजबूर हैं.
हमें याद रखना होगा कि जो समाज बुजुर्गों का सम्मान नहीं कर सकता वह अपने इतिहास का सम्मान करने की बात भी कैसे कर सकता है? एक मायने में ये बुजुर्ग सिर्फ हाड़-मांस का पुतला ही नहीं, बल्कि भारत के सात, आठ या नौ दशकों का चलता फिरता इतिहास हैं. हम किताब के पन्नों में दबे इतिहास की चिंता तो बहुत कर रहे हैं उसे सिर पर उठाए घूम रहे हैं, लेकिन हमारी आंखों के सामने, जीवंत रूप में मौजूद इतिहास को थप्पड़ मार रहे हैं. यह कैसा समाज गढ़
रहे हैं हम…?
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