राष्ट्र विश्व की प्राचीनतम भारतीय अवधारणा है
हिन्दू राष्ट्र की जुगाली पिछले दस वर्षों से ज्यादा ही हो रही है.अति तब हो गयी जब न्याय की कुर्सी पर आसीन माननीय हिन्दू राष्ट्र की जुगलबंदी में शामिल हो गए . इस अति पर प्रस्तुत है गांधीवादी विचारक व लेखक तथा सर्वोदयी डॉ. सुख चन्द्र झा की यह टिप्पणी.
राष्ट्र विश्व की प्राचीनतम भारतीय अवधारणा है. इसका उत्स वैदिक ॠचाओं में है. लेकिन भारत धर्म राष्ट्र कभी नहीं रहा | हर काल खंड में भिन्न जाति-प्रजाति और धर्मों लोग यहाँ मिल जुलकर रहे लड़ते भी रहे, पर साथ साथ रहे | दरअसल अपना देश प्राकृतिक राष्ट्र है, सांस्कृतिक राष्ट्र और उससे भी बढ़ कर लोक राष्ट्र है | राष्ट्र का निर्माण नहीं होता है. इसका विकास(इवोल्यूशन) होता है. तोप तलवार से राज्य -साम्राज्य बनते हैं . राष्ट्र तो लोक मानस ओर लोक चेतना से विकसित होता है. राष्ट्र राज्य से भी व्यापक होता है .राज्य पराजित और गुलाम हो सकता है .लेकिन राष्ट्र लोक चेतना में तब भी अक्षुण्ण रहता है. दुर्भाग्यवश काल यात्रा में ‘कौम’ और ‘नेशन’ ने राष्ट्र की व्यापक अवधारणा को संकुचित कर दिया.
जिन्ना अडिग थे कि पहले मि. गांधी कबूल करें कि मुस्लिम अलग कौम है
कौम शब्द पश्चिम एशिया से आया | हिन्दुस्तान में हमने इसे राष्ट्र का पर्याय मान लिया | जिन्ना साहब और उनके कुछ साथी सहयोगियों ने कहा कि मुसलमान अलग कौम है तो कुछ हिन्दू भी कहने लगे कि हाँ, हिन्दू भी अलग कौम है. बस हो गया कौम का मतलब राष्ट्र. जिन्ना गांधी वार्ता में बापू ने जिन्ना से कहा, जिन्ना साहब ,आप जो चाहते हैं वह आपको मिलेगा. लेकिन पहले हम मिल कर आजादी ले लें . जिन्ना अडिग थे कि पहले मि. गांधी कबूल करें कि मुस्लिम अलग कौम है. तब गांधीजी ने कहा ,भाई जिन्ना सात-आठ पीढी पहले आपके पुरखे हिन्दू थे. वे मुसलमान हो गए तो आपका कौम बदल गया ? गांधीजी की मंशा साफ़ थी कि कौम यदि राष्ट्र है तो मजहब बदलने से कौम नहीं बदलता.
लोक मानस में भारतीय राष्ट्र की तस्वीर आज भी वही है
नेशन यूरोप से यहाँ पहुंचा. हमने उसको भी राष्ट्र का समानार्थक बना दिया . हम कहते थे कि इंडिया इज ए नेशन. जॉन स्ट्राची ऐसे इतिहासकार कहते थे , नो इंडिया इज ए ग्रुप ऑफ़ नेशन्स . उनका यूरोपी तजुर्बा था ,जितने स्टेट (राज्य) उतने नेशन .भरतीय राष्ट्र उससे कहीं व्यापक था .बुद्ध के समय में 16 संप्रभु राज्य (महाजनपद) थे किन्तु राष्ट्र रूप में भारत एक ही था . लोक मानस में भारतीय राष्ट्र की तस्वीर आज भी वही है.
बकौल रवींद्र नाथ ठाकुर.
हेथाय आर्य ,हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़ चीन
शक, हुण, पाठान, मोगल एके देहे होलो लीन.
भारत में कुछ लोग राष्ट्र के सत्व को गुरुदेव के नजरिए से देखते ही नहीं . कौन हैं वो लोग?
नवनीत मासिक में डा विद्या निवास मिश्र ने कभी लिखा कि भारतीय राष्ट्र के बारे में यहाँ के दो तरह के विचार हैं . एक दृष्टिकोण श्रद्धा और अहो भाव का है तो दूसरा स्वामित्व का . डा साहब की बात को मैं यूँ रखता हूं -राष्ट्र के प्रति श्रद्धा रखने वाले सोचते हैं, हम सबको मित्रवत देखें और सब हमको भी मित्रवत देखें .इसके उलट स्वामित्व भाव वाले मानते हैं, यह राष्ट्र हमारा है .हम ही तय करेंगे कि यहाँ कौन रहेगा . यहाँ खाना पीना,पूजा पाठ सब हमारी मर्जी से होगा . स्वामित्व भाव वाले, राष्ट्र का उदात्त स्वरुप देख नहीं पाते | इनको धर्म (कौम) और राज्य में ही (नेशन स्टेट ) राष्ट्र देखने की आदत लग गयी है .ऐसे लोग हर मजहब में होते हैं .इनकी संख्या आम अवाम की तुलना में बहुत कम होती है. लेकिन मनोनुकूल सत्ता की शह पाकर वे बड़े ताकतवर हो जाते हैं .
आज कल हिन्दू राष्ट्र की मांग भी ऐसी ही मालिकाना मानसिकता वाले भाजपा और उसके सहमाना संगठनों का सियासी शगल है. यकीन मानिए इनकी संख्या नहीं, सिर्फ शोर है. लेकिन हमें देश को इनसे सावधान करना है, गांधी के सत्य और अहिंसा, विनोबा के जय जगत (वसुधैव कुटुम्बकम्) और बाबा साहब के संविधान के सहारे .
डॉ.सुख चन्द्र
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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