Soft landing of Chandrayaan 3 – रूस की लूनर मिशन लूना-25 को चांद पर लैंड कराने की कोशि नाकाम हो गई. सॉफ्ट लैंडिंग की कोशिश में लूना-25 क्रैश हो गया. इससे पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो का चंद्रयान-2 भी लैंड नहीं कर पाया था. साल 1963 से 1976 के बीच चांद पर उतरने की कुल 42 कोशिशों में 50 फीसदी ही सफल हुई थीं. जानते हैं कि ऐसा क्या है?
चीन इकलौता ऐसा देश है, जिसने बीते 10 साल में तीन बार चांद पर सफल लैंडिंग की है. अमेरिका ने अब तक छह क्रू मिशन चांद की सतह पर उतारने में सफलता हासिल की है. वहीं, सभी असफल कोशिशों के बाद भी दुनिया के बड़े देश नए सिरे से चांद पर पहुंचने की कोशिश करते रहते हैं. अब सबसे सफल अमेरिका भी नए सिरे से यानी शून्य से शुरुआत कर रहा है. आखिर ऐसा क्या है, जो चांद की सतह पर किसी अंतरिक्ष यान की सॉफ्ट लैंडिंग को बेहद जोखिम भरा बना देता है? क्यों इतनी कोशिशों के बाद भी सफल लैंडिंग को लेकर अनिश्चितता बनी रहती है?
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो के तत्कालीन चेयरमैन के. सिवन ने 2019 में चंद्रयान-2 के समय लैंडिंग के अंतिम चरण को ’15 मिनट्स ऑफ टेरर’ कहा था. इससे साफ होता है कि चांद पर अंतरिक्ष यान की सॉफ्ट लैंडिंग के आखिरी 15 मिनट सबसे अहम और जोखिम वाले होते हैं. साथ ही पता चलता है कि मिशन मून का आखिरी चरण सबसे ज्यादा मुश्किलों से भरा होता है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बीते चार साल में भारत के साथ ही इजरायल, जापान और रूस ने चांद की सतह पर स्पेसक्राफ्ट उतारने की कोशिश की है. इनमें से किसी को भी सफलता नहीं मिली है. इनमें ध्यान देने की बात ये है कि सभी देशों को लैंडिंग के आखिरी समय में ही दिक्कतें आईं. सभी देशों के स्पेसक्राफ्ट लैंडिंग के समय ही क्रैश हुए.
सबकी दिक्कतें अलग, लेकिन नतीजा एक
रूस के लूनर मिशन लूना-25 के क्रैश होने की वास्तविक वजह अभी तक सार्वजनिक नहीं की है. हालांकि, रूस की स्पेस एजेंसी रॉस्कॉसमॉस ने बताया कि लैंडिंग से ठीक पहले वाली कक्षा में प्रवेश के समय स्पेसक्राफ्ट रास्ता भटक गया था. इसके बाद ये चंद्रमा से टकराया और क्रैश हो गया. इससे पहले इसरो का चंद्रयान-2, इजरायल का बेयरशीट और जापान का हाकुटो-आर भी सफल लैंडिंग नहीं कर पाए थे. इन सभी की दिक्कतें तो अलग थीं, लेकिन नतीजा स्पेसक्राफ्ट क्रैश होने के तौर पर समान था.
मिशन में इस्तेमाल तकनीक बदली
चंद्रयान-1 में बड़ी भूमिका निभाने वाले मायलस्वामी अन्नादुरई के मुताबिक, उस समय के चंद्र अभियान भेजने में उठाए गए जोखिम अब स्वीकार्य नहीं हैं. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, अब पिछले मिशन मून पर किए गए खर्च को भी सही नहीं ठहराया जा सकता है. इस समय इस्तेमाल की जा रही तकनीक काफी सुरक्षित, सस्ती और ईंधन बचत वाली है. इस समय की तकनीक की तुलना 1960 और 1970 के दशक से नहीं की जा सकती है. इसीलिए अमेरिका ने नए दौर में ऑर्बिटर भेजकर नए सिरे से शुरूआत की है. साथ ही अमेरिका ने आर्टेमिस प्रोग्राम की शुरुआत इंसानों को भेजने से नहीं की.
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