
महात्मा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री और वीर शाहिद शेख बुखारी की जयंती पर एम एस आई.टी.आई आजाद नगर, मानगो, जमशेदपुर में मोमिन अंसार सभा द्वारा एक कार्यक्रम का आयाजित किया गया। इस कार्यक्रम में जनाब खालिद इकबाल ने वीर शाहिद शेख बुखारी के बरेह में कहा की नायक शेख भिखारी की जीवनी शेख भिखारी का जन्म 2 अक्तूबर 1819 ई. में ओरमांझी थाना के ग्राम खूदिआ (खोदया) में हुआ था।
खुदीआ, लूटवा गाँव और मांझी से 9 किलोमीटर दूर सिकिदरी जाने वाले मार्ग पर स्थित है। 1857 ई. में शेख भिखारी की उम्र 38 साल थी, बचपन से ही सैन्य संचालन में दक्षता के साथ जमीन्दारी के कामों का भी उन्हें अच्छा खासा अनुभव था और मांझी खटंगा के राजा टिकैत उमराव सिंह न उनकी वीरता एवं बुद्धिमता से प्रभावित होकर ही उन्हें अपना दीवान नियुक्त किया था।
इसके अतिरिक्त ठाकुर विश्वनाथ शाही (बड़कागढ़ – हटिया) ने शेख भिखारी को मुक्तिवाहिनी का सक्रिय सदस्य बनाया था जिसमें ठाकुर विश्वनाथ शाही, पाण्डेय गणपत राय (भौनरो) जयमंगल पाण्डेय, नादिर अली खां, टिकैत उमराव सिंह, शेख भिखारी, बृज भूषण सिंह, चमा सिंह, शिव सिंह, रामलाल सिंह, बृज राम सिंह आदि थी। शेख भिखारी टिकैत उपरव सिंह के दीवान थे। 1857 की क्रांति में राजा उमराव सिंह, उनके छोटे भाई घांसी सिंह और उनके दीवान शेख भिखारी ने जिस शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन किया था उनकी अनुगूंज आज भी ओरमांझी और उसके निकटवर्ती इलाकों में सुनाई पड़ती है।
झारखंड के आंदोलन में सक्रियता
2 अगस्त 1857 ई. को दो बजे दिन में चुटूपालू की सेना ने रांची नगर पर अधिकार स्थापित कर लिया, उस समय छोटानागपुर का आयुक्त इ. टी. डाल्टन था। डाल्टन सहित रांची का जिलाधिकारी डेविस न्यायधीश ओकस तथा पलामू का अनुमंडलाधिकारी वृच सभी कांके, पिठोरिया के मार्ग से बगोदर भाग गए। इस विपति के समय सिख सैनिकों ने अंग्रेजों का साथ दिया। चाईबासा तथा पुरूलिया में क्रांति को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने सिख सैनिकों से सहायता ली। हजारीबाग में 2 सितम्बर से 4 सितम्बर 1857 ई. तक सिख सैनिकों ने पड़ाव डाले रखा इसी बीच शेख भिखारी हजारीबाग पहुंचे और उन्होंने ठाकुर विश्वनाथ शाही (शाहदेव) का पत्र सिख सेना के मेजर विष्णु सिंह (विशुन सिंह) को दिया तथा अपनी राजनीतिक सूझ – बूझ से मेजर विशुन सिंह को अपने पक्ष में कर लिया। परिणाम स्वरुप मेजर विशुन सिंह के सैनिकों भारतीय क्रन्तिकारियों को पक्ष में कर लिया।
गुमनामी के गहरे अंधेरें में ये खो गये
स्वतंत्रता संग्राम के पुजारियों को भयभीत करने के लिए टिकैत उमराव सिंह और शेख भिखारी को दृष्टान्त योग्य सजा की गई। जब चुट्टूपालु की घाटी में भीड़ बढ़ती गई, परिजनों का करुण क्रंदन बढ़ता गया अपार भीड़ के उमड़ते हुए आवेग से भयभीत होकर मेकडोनाल्ड ने रांची – ओरमांझी रास्ते में मोराबादी टैगोरहिल के निकट एक पेड़ (बरगद) की दो टहनियों पर लटका कर, एक झटके में बंधन काट डाला तथा शेख भिखारी और टिकैत उमराव का शरीर फट कर दो टूकड़े हो गया, इतनी दर्दनाक मौत को इन वीर बांकूड़ों ने गले लगा लिया और उनके लाशों को चुटूपालू लाकर कर एक बरगद के पेड़ पर लटका दिया गया।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि चुटूपालू घाटी में ही इन्हें फांसी दी गई जिसके कारण उस बरगद के पेड़ को फंसियारी बरगद कहा जाता है – जबकि दूसरी ओर मोराबादी के इस ऐतिहासिक स्थल को आज भी लोग फांसी टोंगरी कहते हैं। चुटूपालू की घाटी में लटकाई इन दोनों शूरमाओं की लाशों को चील कौओं ने नोच – नोच कर अपना पेट भरा। 8 जनवरी 1858 ई. को इन अमर शहीदों ने स्वतंत्रता की बलि वेदी पर अपने को न्योछावर कर दिया। किन्तु इस ऐतिहासिक अन्य का घाव अब भी हरा है, अमर शहीद शेख भिखारी, नादर अली खां को लोग तेजी से भूलते जा रहें है। रांची नगर के चौराहों पर लगाये जाने वाली प्रतिमाओं में इन शहीदों को लोग ढूंढते हैं जो कहीं नहीं दिखाई पड़ते। गुमनामी के गहरे अंधेरें में ये खो गये हैं।
इस कार्यक्रम में मौजुद थे प्रोफेसर जावेद अख्तर अंसारी, साजिद कमाल, डॉ जाहिद तहसील, अनवर नजी, डॉ ताहिर अहमद, फैयाज अहमद, मोहम्मद नायाज, बिलाल हाशमी, अफरोज, अहद आलम, शाहेबे आलम, शम्सुद्दीन, इब्राहिम आदि।

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