एक प्रतियोगी परीक्षा का उम्मीदवार सबसे पहले तो यह तय करता है कि उसे किस नौकरी की तैयारी करनी है, फिर उस दिशा में पढ़ाई शुरू करता है और परीक्षा की अधिसूचना जारी होने का इंतज़ार करता रहता है. इसी बीच अगर किसी ऐसी नौकरी की अधिसूचना आ जाए जिसकी तैयारी वह नहीं कर रहा था तो भी वह ये सोचते हुए आवेदन कर देता है कि जिसकी तैयारी वह कर रहा है पता नहीं उसका आवेदन कब आएगा?
घर से आने वाली फ़ोन की घंटी डराने लगती है. एक मिनट की बातचीत में भी परीक्षा की तारीख़ और तैयारी की ही बातें आती हैं. परीक्षाओं की तारीख़ आने के बाद अब कोविड के समय में इस बात की भी चिंता होती है कि कहीं नई लहर न आ जाए. उस पर परीक्षा के पर्चे लीक होने का डर. रिज़ल्ट आने के बाद भी इस बात का डर बना रहता है कि कोई कोर्ट न चला जाए.
नौकरियां पर ही क्यों निर्भर हैं छात्र.
यह सवाल तो कई लोगों के ज़हन में होगा कि हिन्दी पट्टी के इतने सारे छात्र सरकारी नौकरियां ही क्यों चाहते हैं?ए.एन.सिन्हा सामाजिक शोध संस्थान के पूर्व निदेशक डी.एम. दिवाकर कहते हैं, “पहला तो यह कि जीने के लिए जीविका होनी चाहिए. जीने के लिए कुछ खेत चाहिए और खेती के लिए खाद और पानी जैसी अन्य सुविधाएं, लेकिन जब आप हिन्दी पट्टी को देखेंगे तो पाएंगे कि खेती घाटे का सौदा हो चुकी है. तो छोटे और मंझोले किसान पहले से ही पलायन कर गए हैं.”दिवाकर के अनुसार बिहार में एक बड़ी आबादी भूमिहीनों की है जो कहीं गिनती में ही नहीं हैं.
गांव-समाज में हमेशा से यह भाव रहा है कि ग़रीबी दूर करने और सम्मान पाने के लिए नौकरी ज़रूरी है.
वो कहते हैं, “बंटाई पर खेती करने वालों को तो स्टेट की ओर से कोई ग्रांट भी नहीं मिल पाता. तो ऐसे घरों के बच्चों के लिए इनफ़ॉर्मल सेक्टर ही एक उम्मीद थी, और आज वो भी तबाह हो चुका है. जैसे नोटबंदी के बाद आई जीएसटी और फिर कोरोना की लहर ने एक बड़ी आबादी को तबाही के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया.”डी.एम.दिवाकर आगे कहते हैं, “हमारे गांव-समाज में हमेशा से यह भाव रहा है कि ग़रीबी दूर करने और सम्मान पाने के लिए नौकरी ज़रूरी है. वैसे तो उदारीकरण आने के साथ ही फ़ॉर्मल सेक्टर में नौकरियां कम हुईं, लेकिन साल 2016 के बाद से तो वैकेंसी निकलने का सिलसिला भी लगभग थम सा गया. तो नौजवानों को कहीं भी कोई नौकरी की उम्मीद दिखती है तो वे पागलों की तरह फ़ॉर्म भरते हैं.”
किन हालातों में रहकर छात्र नौकरी की तैयारी करतें हैं.
उनके कमरों की हालत यह होती है कि कमरे शुरू होते ही ख़त्म हो जाते हैं. बिना खिड़की वाले इन कमरों में दिन के वक़्त बिना बल्ब जलाए कुछ भी नहीं देखा जा सकता. कमरों की दीवारों पर लगा होता है भारत और विश्व का मानचित्र और पीरियॉडिक टेबल. साथ ही लगी होती हैं किन्हीं महान विभूतियों की तस्वीरें और प्रेरणादायक पंक्तियां कि जोश कम न हो. कमरा जो घर से दूर उनके संघर्ष और तपस्या का केन्द्र होता है.
रेलवे के एनटीपीसी के नतीजों के बाद बिहार और यूपी के छात्र 24 जनवरी से आंदोलन कर रहे हैं.
लॉज में 10 से 15 छात्रों पर एक टॉयलेट होता है. कोरोना महामारी ने इनकी परेशानियां और बढ़ा दी हैं. ऑनलाइन क्लासेज़ के कारण इंटरनेट का ख़र्च बढ़ गया है.रेलवे के एनटीपीसी के नतीजों के बाद बिहार और यूपी के छात्र 24 जनवरी से आंदोलन कर रहे हैं. उन्हें लग रहा है कि उनके साथ छल हुआ है और कोई उनकी बात सुनने वाला नहीं.घर-परिवार वालों का दबाव रहता है कि जल्द से जल्द नौकरी मिल जाए और नौकरी नहीं मिलने के कारण आसपास वालों का ताना भी सुनना पड़ता है. कई छात्र तो अब गांव-घर जाने से भी कतराने लगे हैं.
ऑनलाइन क्लासेज़ के कारण इंटरनेट का ख़र्च बढ़ गया है.
पटना में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे कोडरमा के रंजीत (26 वर्ष) कहते हैं, “देखिए मैंने RRB-NTPC और ‘ग्रुप डी’ दोनों परीक्षाओं के लिए अप्लाई किया था. मेरा NTPC का रिज़ल्ट भी आया है. आगे के लिए तैयारी शुरू ही किए थे कि फिर से बवाल हो गया है. क्या करें कुछ समझ में नहीं आ रहा?”रंजीत के पिता एक बिजली मेकैनिक हैं और घर के ख़र्चे का सारा दारोमदार उन पर ही है.रेलवे और एसएससी की तैयारी कर रहे एक और छात्र प्रणव से भी हमने बात की. वे कहते हैं, “हम भी RRB-NTPC की परीक्षा दिए थे लेकिन पहले राउंड में नहीं हुआ. बाबूजी खेती-किसानी करते हैं. 3-4 बिघा खेत से ही घर परिवार चल रहा है, और अब तो छोटा भाई भी पटना आएगा. बजट बढ़ जाएगा. बाबूजी के लिए यह बड़ा अमाउंट हो जाएगा. मेरी ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जा रही.”
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