रीसर्च कंपनी थंडर सेड एनर्जी के प्रमुख रॉब वेस्ट ने फाइनेन्शियल टाइम्स को बताया, “मौजूदा युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं. हालांकि आठ मार्च को रूस के उप प्रधानमंत्री अलेक्ज़ेंडर नोवाक ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा था कि “कच्चे तेल की कीमतें अप्रत्याशित रूप से बढ़ सकती हैं. ये कम से कम 300 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं.
बीते सप्ताह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमतों में 21 फ़ीसदी का उछाल देखा गया था.
ईंधन के मामले में पोलैंड अपनी ज़रूरत का आधा रूस से आयात करता है. वहीं तुर्की अपनी ज़रूरत का एक तिहाई कच्चा तेल रूस से लेता है.एक और बेहद महत्वपूर्ण फैक्टर है, बाज़ार में तेल की क़ीमतें, जो युद्ध के कारण पहले ही बढ़ती जा रही हैं.बीते सप्ताह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इसकी कीमतों में 21 फ़ीसदी का उछाल देखा गया था, जिसके बाद ये और 18 फ़ीसदी बढ़कर थोड़ा कम हुआ और 140 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया.
कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से केवल डीज़ल पेट्रोल या गैस की कीमतें नहीं बढ़ती बल्कि ज़रूरत के हर सामान की क़ीमत इसके साथ बढ़ जाती है. उत्पादन के लिए और सामान एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए ईंधन का इस्तेमाल होता है, ऐसे में तेल की कीमतों का सीधा नाता महंगाई से है.बार्कलेज़ बैंक के अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे स्टैगफ्लेशन बढ़ने का ख़तरा है.
युद्ध का असर खाने के सामान की कीमतों पर भी पड़ सकता है.
स्टैगफ्लेशन वो स्थिति होती है जब महंगाई लगातार बढ़ती है और अर्थव्यवस्था में एक ठहराव-सा आ जाता है, यानी अर्थव्यवस्था का विकास धीमा रहता है और बेरोज़गारी बढ़ जाती है. युद्ध का असर खाने के सामान की कीमतों पर भी पड़ सकता है, वो इसलिए क्योंकि रूस और यूक्रेन दोनों ही कृषि उत्पाद के मामले में आगे हैं.कच्चे तेल की कीमतों के कारण खाद की कीमतें पहले ही बढ़ गई हैं. खाद के मामले में भी रूस दुनिया के सबसे बड़े निर्यातकों में शुमार है.
यहाँ हम ये समझने की कोशिश कर रहे हैं कि इस युद्ध का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कितना बड़ा असर पड़ेगा, और क्या इस कारण वैश्विक मंदी आ सकती है.ब्रिटेन में मौजूद कंसल्टेन्सी कंपनी ऑक्सफ़ोर्ड इकोनॉमिक्स के अनुसार रूस और यूक्रेन के लिए युद्ध का आर्थिक परिणाम दुनिया के बाकी मुल्कों के लिए ये एक जैसा नहीं होगा.उदाहरण के तौर पर पोलैंड और तुर्की के रूस के साथ बेहद मज़बूत व्यापारिक रिश्ते रहे हैं और इस कारण युद्ध के असर के मामले में वो अन्य अर्थव्यवस्थाओं के मुक़ाबले अधिक जोखिम वाली स्थिति में हैं.
युद्ध के कारण विकास की गति को लेकर आशंका ज़रूर ज़ाहिर की जा रही है.
मैक्कियोन कहती हैं कि वैश्विक स्तर पर उपभोक्ता की पर्चेज़िंग पावर पर जो असर पड़ेगा उससे एशियाई अर्थव्यवस्थाएं बच नहीं सकेंगी.युद्ध के कारण विकास की गति को लेकर आशंका ज़रूर ज़ाहिर की जा रही है लेकिन इसका असर काफी हद तक इस पर निर्भर करता है कि युद्ध कितने वक्त तक जारी रहता है और चीज़ें कितनी बिगड़ती हैं.
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