तिलका मांझी को वह जगह इतिहास में नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे
तिलका माझी उर्फ़ जबरा पहाड़िया क्रूर अंगरेजों के खिलाफ क्रान्ति की मशाल जलाकर आज के ही दिन यानि 13 जनवरी 1785 को शहीद हो गए. उनके बाद असंख्य देश भक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी, जिनकी संघर्ष-गाथा इतिहास में दर्ज हो गई, लेकिन तिलका मांझी को वह जगह इतिहास में नहीं मिली, जिसके वह हकदार थे. हालाँकि समय-समय पर कई लेखकों और इतिहासकारों ने उन्हें ‘प्रथम स्वतंत्रता सेनानी’ होने का सम्मान दिया है. महान लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की. हिंदी उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हुल पहाड़िया’ में तिलका मांझी के संघर्ष को जगह दी है.
तिलका का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति
तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज में ‘तिलकपुर’ नामक गाँव में एक संथाल परिवार में हुआ था. पिता का नाम सुंदरा मुर्मू था. तिलका मांझी का वास्तविक नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही था. तिलका मांझी नाम उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था. पहाड़िया भाषा में ‘तिलका’ का अर्थ है गुस्सैल और लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति होता है. वे ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहा जाता है. हालाँकि ब्रिटिशकालीन दस्तावेज़ों में भी ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम मौजूद हैं. ‘तिलका’ का कहीं ज़िक्र नहीं है.
अत्याचार होते देख विद्रोह का मार्ग चुना
तिलका ने अपने जंगलो को लुटते और अपने लोगों पर अत्याचार होते देख विद्रोह का मार्ग चुना. गरीब आदिवासियों की भूमि, खेती, जंगली वृक्षों पर अंग्रेज़ी शासकों ने कब्ज़ा कर रखा था. आदिवासियों और पहाड़िया सरदारों की लड़ाई अंग्रेज़ी सत्ता से हमेशा रही, लेकिन पहाड़िया जमींदार वर्ग ने अंग्रेज़ी हुकूमत का साथ दिया. क्रमशः असंतोष और विरोध के स्वर तेज होने लगे. तिलका ने अन्याय और गुलामी के खिलाफ़ जंग छेड़ दी. वे देश भक्ति की ज्योत जगाने के लिए भागलपुर में स्थानीय लोगों को सभाओं में संबोधित करने लगे. उन्होंने जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोगों को देश के लिए एकजुट होने के लिए प्रेरित किया.
छापामारी युद्ध में प्रवीण थे तिलका
वर्ष 1770 में भीषण अकाल पड़ा, तो तिलका ने अंग्रेज़ी सरकार का खज़ाना लूटकर आम गरीब लोगों में बाँट दिया. ऐसे कई जनहित के काम तिलका ने किये. इस प्रकार आदिवासी उनसे जुड़ते गये. इसी के साथ प्रारम्भ हुआ उनका ‘संथाल हुल’ अर्थात आदिवासियों का विद्रोह. उन्होंने अंग्रेज़ों और उनके चापलूस सामंतों पर लगातार हमले किए और हर बार तिलका मांझी को जीत मिली.
उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के आगे कभी हथियार नहीं डाले
वर्ष 1784 में उन्होंने भागलपुर पर हमला किया और 13 जनवरी 1784 में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार अंग्रेज़ कलेक्टर ‘अगस्टस क्लीवलैंड’ को अपने जहरीले तीर से निशाना बनाकर मौत के घात उतारा. सन 1771 से 1784 तक तिलका मांझी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी. उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के आगे कभी हथियार नहीं डाले. वे एक निडर और जीवट योद्धा थे. उन्होंने स्थानीय सूदखोर ज़मींदारों एवं अंग्रेज़ी शासकों को अपने जीते जी कभी चैन की नींद सोने नहीं दिया.
‘फूट डालो और राज करो’ की नीति की भेंट चढ़े तिलका
बहुत कोशिशों के बाद भी अंग्रेज़ी सेना तिलका को नहीं पकड़ सकी तो ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का सहारा लिया. उनका यह फ़रेब रंग लाया और तिलका के समुदाय से ही एक गद्दार ने उनके बारे में सूचना अंग्रेज़ों तक पहुंचाई. फिर रात के अँधेरे में अंग्रेज़ सेनापति आयरकूट ने तिलका के ठिकाने पर हमला कर दिया, लेकिन किसी तरह वे बच निकले और उन्होंने पहाड़ियों में शरण लेकर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ छापेमारी लड़ाई जारी रखी. अंग्रेज़ों ने अंतिम शस्त्र का उपयोग किया. पहाड़ों की घेराबंदी कर उन तक पहुंचने वाली तमाम सहायताओं पर रोक लगा दी.
ब्रिटिश राज ख़त्म होने तक नहीं बुझी क्रान्ति की मशाल
अब तिलका को अनाज और पानी के लिए पहाड़ों से निकल कर लड़ना ही पड़ा और एक दिन वह पकड़े गए. कहा जाता है कि तिलका मांझी को चार घोड़ों से घसीट कर भागलपुर ले जाया गया, जहां 13 जनवरी यानि आज के दिन वर्ष 1785 को उन्हें एक बरगद के पेड़ से लटकाकर सरेआम फांसी दे दी गई. ब्रिटिश सरकार को लगा कि तिलका का ऐसा हाल देखकर कोई भी भारतीय फिर से उनके खिलाफ़ आवाज़ उठाने का दुस्साहस नहीं करेगा,परन्तु गोरों को यह पता नहीं था कि बिहार-झारखंड के पहाड़ों और जंगलों में जली क्रान्ति की यह मशाल तब तक नहीं बुझेगी नहीं, जब तक देश से ब्रिटिश राज खत्म नहीं हो जाता.
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ऐसे दौर में तिलका मांझी सरीखे देशभक्तों की ज़रुरत
देश को आजाद कराने वाले सपूतों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि आने वाली पीढियां शहीदों के सपनों को चकनाचूर कर देंगी. देश के अन्दर जाति, समुदाय और धर्म के नाम पर लोगों को आपस में लड़वाया जायेगा. तिलका मांझी ने क्या इसके लिए अंग्रेजों के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ी थी ? क्या उन्होंने इसी दिन के लिए शहादत दी थी ? आज भी शहादतें दी जा रही हैं, पर सत्ता लोलुप राजनेताओं के स्वार्थ की भेंट चढ़ रहे हैं लोग. उन्होंने तब ज़ुल्म और शोषण के खिलाफ आन्दोलन किया, आज ये अन्याय-अत्याचार को फलने-फूलने के लिए माहौल तैयार कर रहे हैं. ऐसे दौर में तिलका मांझी सरीखे देशभक्तों की ज़रुरत है देश को, जो एक बार फिर सफेदपोश देश के दुश्मनों का सफाया कर सके.
देश के इस सपूत को कोटि-कोटि नमन !
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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