30 जनवरी यानि कल हुल दिवस है. संथाल विद्रोह के अगुआ सिदु-कान्हू, चांद-भैरव और फूलो-झानो को हम हर साल की भांति याद करेंगे, उन्हें नमन करेंगे और उनकी वीरता से प्रेरणा लेते हुए उनके रास्ते चलने का संकल्प लेंगे. इस लेख में संक्षेप में इस ऐतिहासिक क्रांति को समेटने का प्रयास किया गया है साथ ही वर्त्तमान सन्दर्भ इसकी प्रासंगिकता और महत्ता क्या है, उसे भी रेखांकित करने का प्रयास किया गया है. कोई त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूं.
शशांक शेखर
विद्रोह का बिगुल
1855-56 में संथाल विद्रोह का नेतृत्व करने वाले दो भाइयों सिदो और कान्हू ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे। उनका बखूबी साथ दिया था उनके भाइयों चांद और भैरव तथा बहनें फूलो और झानो ने. 30 जून को ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता और उसके पिट्ठू ज़मींदारों के शोषण के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल फूंका. संथाल परगना क्षेत्र के दर्जनों गांवों के हजारों संथालयुवाओं को इन्होंने गोलबंद किया. अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया इन्होंने. फ़िर अपनी सेना और पुलिस बल के दम पर अंग्रेजों ने इनके विद्रोह को ऐसे कुचला कि जालियांवाला कांड भी छोटा पड़ जाता है। कहा जाता है इस विद्रोह में अंग्रेजों ने लगभग 30 हजार संथालियों को गोलियों से भून डाला था।
इसने आज़ादी की लड़ाई में चल रही क्रांति की आग को हवा दी
26 जुलाई 1855 को संथाल विद्रोह के इन दोनों अगुआओं सिदु और कान्हू को भोगनाडीह में ही एक पेड़ से लटकाकर सरेआम अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी. इसके बाद 1855 के उत्तरार्ध आते-आते संथाल विद्रोहियों पर अंग्रेज़ सरकार भारी पड़ने लगी. आख़िरकार यहां मार्शल लॉ लागू कर दिया और इस तरह अंग्रेजों के ख़िलाफ़ पहले ऐतिहासिक विद्रोह को कुचल दिया गया, लेकिन वहीं से फ़िर देश भर में बगावत शुरू होने लगी. 1857 में सिपाही विद्रोह हुआ, जिसने आज़ादी की लड़ाई में चल रही क्रांति की आग को हवा दी. फ़िर लंबा आन्दोलन चला. असंख्य देश भक्तों ने देश की आज़ादी के लिए अपनी शहादतें दी.
ऐसे वीर संग्रामियों को इतिहास में समुचित जगह तक नहीं
लगभग नौ दशक बाद अंग्रेजों की गुलामी से देश स्वतंत्र हुआ, देश में लोकतंत्र स्थापित हुआ. सरकारें बनीं, लेकिन ऐसे वीर संग्रामियों को इतिहास में समुचित जगह तक नहीं दी गई. आज भी उनके वंशज अपने वजूद को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
क्या है हुल ?
अन्याय, शोषण, दमन और अत्याचार के खिलाफ़ विद्रोह का नाम है हुल। शोषितों की आवाज़ है हुल। जमींदारों और क्रूर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ़ व्यापक क्रांति का नाम है हुल। अपनी अस्मिता और वजूद के लिए आदिवासियों और वंचितों का सामूहिक आन्दोलन का नाम है हुल।
गोरे अंग्रेज़ तो गए देश से, लेकिन…
गोरे अंग्रेज़ तो गए देश से, लेकिन सही अर्थों में आज़ादी मिली नहीं है देश वासियों को। आज भी आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक और मानसिक रूप से हमें गुलाम बनाए रखने का षडयंत्र रचा जा रहा है। सत्ता में बैठी सरकार का रवैया उन गोरे अंग्रेजों से भी ज्यादा क्रूर है। शोषण, दमन और ज़ुल्म का दौर जारी है। ऐसे में फिर एक हुल क्रांति की ज़रूरत है देश में। फिर विद्रोह की ज़रूरत है इन काले अंग्रेजों के खिलाफ़। फिर कोई सिदो निकले, कोई कान्हू आए, चांद और भैरव आए और विद्रोह की कमान संभाले।
कौन करे क्रांति की अगुआई ?
वक्त का तकाज़ा है कि मौजूदा दौर में भी कोई फूलो और झानो जैसी बहनें अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए हाथों में थाम ले हथियार और क्रांति की अगुआई करे। वो कौन होंगे जो समाज और देश की दशा सुधारने के लिए आगे आएंगे और सही दिशा देने के लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभाएंगे ? वो हममें से ही होंगे। मतलब आप और हम। हमारे जैसे ही लोग होंगे, जो सिदो कान्हु, चांद भैरव और फूलो झानो की तरह समाज और देश के लिए मरने मिटने को तत्पर रहेंगे।
हुल दिवस से हमें यही प्रेरणा लेनी चाहिए और संकल्प भी कि कोई आसमान से उतरकर बदलाव लाने के लिए नहीं आएगा। करना तो हमें होगा।
अग्रिम हुल जोहार.
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शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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