हज़ारों निहत्थे और निरीह लोगों को गोलियों से छलनी कर दिया
आज खरसावां गोलीकांड की 74वीं बरसी है. आज़ादी के 4 महीने भी नहीं बीते थे, कि ओडिशा पुलिस ने की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई. निहत्थे और निरीह हज़ारों लोगों (आदिवासियों) को गोलियों से छलनी कर दिया. उनका अपराध यही था, कि वे लोकतांत्रिक तरीके से अपने हक़ के लिए आवाज़ उठा रहे थे.
जालियांवाला बाग़ नरसंहार से होती है इसकी तुलना
बर्बरता को छुपाने के लिए लाशों को सूखे कुएं में डाल दिया. घायलों का ईलाज तो दूर, ज़िंदा दफना दिया. जालियांवाला बाग़ नरसंहार से इसकी तुलना की गई. ओड़शा सरकार के मुताबिक 32 लोग मारे गये. बिहार सरकार ने कहा, कि 48 लोग मारे गये, जबकि गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार हजार लोग मारे गए. जयपाल सिंह मुंडा का मानना था, कि इस गोलीकांड में कम से कम एक हजार लोग मारे गए थे. यहां हम लोगों की संख्या पर बात नहीं करेंगे, बल्कि इंसानियत को मारकर खरसावां हाट मैदान में पहुँची ओडिशा पुलिस की बीमार मानसिकता को लेकर कुछ सवाल करना चाहेंगे.
क्या ओडिशा सरकार ने यह आदेश दिया था ?
क्या ओडिशा पुलिस ने लोगों को आगाह करने के लिए हवाई फायरिंग की थी या आंसू गैस के गोले दागे थे ? क्या आन्दोलनकारी इतने उग्र हो गए थे, कि उनपर गोली चलाना ही शेष विकल्प रह गया था ? उस दौरान बिहार पुलिस क्या कर रही थी ? खरसावां राजा क्या चाहते थे और उस समय क्या कर रहे थे ? क्या सैंडर्स की आत्मा ओडिशा पुलिस में घुस गई थी ? पुलिसिया बर्बरता को छुपाने की कोशिश क्यों की गई ? इतनी बड़ी घटना की अबतक उच्चस्तरीय जांच क्यों नहीं हुई ?
सवाल बहुत है, लेकिन इतने के ही जवाब नहीं मिलने वाले, क्योंकि आम लोगों का खून खून नहीं, पानी होता है न ?
देश की पुलिस ने अपने ही देशवासियों को मौत के घात उतार दिया ! ज़रा भी दया नहीं आई ? लोग भाग रहे थे. उनपर भी गोलियां बरसाई ! वाह रे आका के गुलाम !
क्या सरकार शहीदों को उनका वाजिव हक और सम्मान नहीं दिला सकती ?
झारखण्ड राज्य वजूद में आए 21 साल पूरे हो चुके हैं और यह 22वां साल चल रहा है. राज्य को चलाने वाले भी अपने ही लोग, लेकिन सिर्फ खानापूर्ति ! क्यों ? क्या सरकार शहीदों को उनका वाजिव हक और सम्मान नहीं दिला सकती ? मुख्यमंत्री आते हैं और शहीद-वेदी पर चंद फूल चढ़ाकर चले जाते हैं. क्या यही उनके कर्तव्य की इतिश्री है ?
जब पूरी दुनिया नए साल के जश्न में डूबी रहती है, खरसावां में आदिवासी समुदाय के लोग शहीद हुए अपने पूर्वजों को याद कर श्रद्धांजलि अर्पित करते है. कई संगठन तो इस दिन काला दिवस के रूप में मनाते हैं.
खरसावां के शहीदों को कोटि-कोटि नमन
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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