हर दिन दिल्ली के भलस्वा लैंडफिल साइट पर 2,300 टन से अधिक कचरा डंप किया जाता है, जो कि 50 फुटबॉल मैदान से भी बड़ा है। कूड़े का अंबार इतना है कि यह 17 मंजिली इमारत को छू रहा है। और हर दिन इस पर अनौपचारिक श्रमिक कचरे को बीनने का काम करते हैं। ये दुनिया के उन दो करोड़ लोगों में शामिल हैं जो गरीब और अमीर देशों के शहरों को स्वच्छ रखने का जिम्मा उठाते हैं।लेकिन वे नगरपालिका कर्मचारियों के उलट आमतौर पर कोरोना वायरस वैक्सीन के लिए योग्य नहीं होते हैं और उनके लिए टीका प्राप्त करना मुश्किल होता है।
गैर-लाभकारी संस्था चिंतन की चित्रा मुखर्जी कहती हैं, ”महामारी ने उन जोखिमों को बढ़ा दिया है जो ये अनौपचारिक कर्मचारी सामना करते हैं।कुछ ही लोगों के पास खुद के सुरक्षात्मक उपकरण या धोने के लिए साफ पानी है।” मुखर्जी का कहना है, ”अगर उन्हें टीका नहीं लगाया जाता है तो इससे शहरों को नुकसान होगा।”
“क्या हम इंसान नही?”
46 साल की मनुवारा बेगम दिल्ली के पांच सितारा होटल के पीछे एक झुग्गी बस्ती में रहती हैं और असमानता का एहसास करती हैं। चिंतन का अनुमान है कि बेगम जैसे लोग हर साल स्थानीय सरकार का पांच करोड़ डॉलर बचाते हैं और कचरे को लैंडफिल स्थलों से जाने से रोक कर करीब नौ लाख टन कार्बन डाई ऑक्साइड को खत्म करते हैं। फिर भी वे ”आवश्यक श्रमिक” नहीं माने जाते हैं और वे टीकाकरण के लिए अयोग्य होते हैं। बेगम ने एक ऑनलाइन चाचिका अभियान की शुरुआत की है. वे वैक्सीन की गुहार लगा रही हैं और सवाल कर रही हैं कि क्या “हम इंसान नहीं है?”
दूसरे देशों में सफाई कर्मचारियों का वैक्सीनेशन चालू
दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका और जिम्बाब्वे में स्थानीय सरकारों की तरफ से रखे गए सफाई कर्मचारियों को स्वास्थ्य कर्मचारियों के बाद कोविड-19 वैक्सीन देने की तैयारी है। वे नगर निगम के कर्मचारियों की मदद करते हैं और अक्सर नगर पालिका की तरफ से उन इलाकों में सफाई नहीं किए जाने पर वे अपनी सेवा देते हैं, कई बार वे काम के दौरान जख्मी भी होते हैं। उन्हें किसी तरह का लाभ सरकार की ओर से नहीं मिलता है।
कचरे बिनने वाले अक्सर पहले से ही गरीब होते हैं
सिंगापुर के राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई अध्ययन में प्रोफेसर रॉबिन जेफरी कहते हैं वे अक्सर पहले से ही गरीब होते हैं और कचरे को छांटकर किसी तरह से अपनी आजीविका चलाते हैं। भारत में कचरे को छांटने का काम आमतौर पर दलित समुदाय के सदस्य या फिर गरीब मुसलमान करते हैं।देश में जाति प्रथा में एक समय में दलितों को अछूत माना जाता था।
कोरोना काल में कूड़ा बीनने वालों की मुसीबत हुई दोगुनी
कोरोना वायरस के बाद बने हालात की वजह से हो सकता है और वहां काम करने वालों के लिए बहुत ही जोखिम भरा साबित हो सकता है। यह लैंडफिल साइट 52 एकड़ में फैली हुई है और इसकी ऊंचाई 60 मीटर से अधिक हो रही है, साइट पर इस्तेमाल किए हुए कोरोना वायरस टेस्ट किट, सुरक्षात्मक कवच, खून और मवाद से लिपटी रूई और उसके अलावा राजधानी दिल्ली का हजारों टन का कूड़ा आता है, जिसमें छोटे अस्पताल और नर्सिंग होम भी शामिल हैं।
“अगर हम मर गए तो?”
44 साल के मंसूर खान को जोखिम के बारे में बखूबी पता है लेकिन उन्हें लगता है कि उनके पास विकल्प बहुत कम हैं।मंसूर कहते हैं, “अगर हम मर गए तो? क्या पता हमें अगर यह बीमारी हो गई तो? लेकिन डर से हमारा पेट तो नहीं भरेगा ना।” कूड़े के पहाड़ के पास ही खान का दो कमरे का पक्का मकान है और वे अपने परिवार के साथ इसी तरह से रह रहे हैं।38 साल की लतीफा को संक्रमण का डर सता रहा है। उनके तीन बच्चे हैं और उनकी उम्र 16, 14 और 11 साल है।लतीफा कहती है, “जब मैं वहां से लौटती हूं मुझे घर में दाखिल होने में डर लगता है क्योंकि मेरे बच्चे हैं। इस बीमारी को लेकर हम लोग बहुत भय में हैं।”
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