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Home » 5 भारतीय ब्रांड्स की कहानी : आजादी से पहले शुरू हुए थे ये , आज कर रहे हैं अरबों रुपए का व्पायार
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5 भारतीय ब्रांड्स की कहानी : आजादी से पहले शुरू हुए थे ये , आज कर रहे हैं अरबों रुपए का व्पायार

Nishat KhatoonBy Nishat KhatoonFebruary 8, 2022No Comments10 Mins Read
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Story of 5 Indian brands: These were started before independence, today they are doing business of billions of rupees
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Modi Hardware mart Adityapur

भारत समेत दुनिया भर में कई तरह के ब्रांड्स मौजूद हैं, जो एक सफल बिजनेस की कहानी बयाँ करते हैं। लेकिन कोई भी बिजनेस एक रात में खड़ा नहीं किया जाता है और न ही उसे सफल बनाना इतना आसान काम है, क्योंकि बिजनेस शुरू करना एक मुश्किल दांव खेलने जैसा होता है।

ऐसे में आज हम आपको भारत के उन सफल बिजनेस ब्रांड्स के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनकी शुरुआत आजादी से पहले हुई थी। आज यह ब्रांड्स भारत के सबसे लोकप्रिय और पसंदीदा कंपनियों में से एक हैं, जो अरबों रुपए का व्यापार कर रहे हैं।

महिंद्रा एंड महिंद्रा (Mahindra & Mahindra)

भारत में महिंद्रा एंड महिंद्रा एक बहुत ही जानी मानी ऑटोमोटिव निर्माता (Automotive Manufacturer) कंपनी है, जिसकी शुरुआत 2 अक्टूबर 1945 में की गई थी। पंजाब के लुधियाना शहर में शुरू की गई इस कंपनी का नाम पहले महिंद्रा एंड मोहम्मद था, जिसे जगदीश चंद्र महिंद्रा और कैलाश चंद्र महिंद्रा नामक दो भाईयों ने अपने दोस्त मलिक गुलाम मुहम्मद के साथ मिलकर शुरू किया था। महिंद्रा भाईयों और मलिक गुलाम मुहम्मद ने एक साथ मिलकर उस कंपनी को भारत की सबसे बेहतरीन स्टील कंपनी बनाने का सपना देखा था, लेकिन साल 1947 में देश के बंटवारे का साथ महिंद्रा भाईयों और मलिक गुलाम का सपना भी टूट गया।

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15 अगस्त 1947 को देश के बंटवारे के बाद मलिक गुलाम मुहम्मद पाकिस्तान चले गए थे, जहाँ वह पाकिस्तान के पहले वित्त मंत्री और फिर तीसरे गवर्नर के रूप में चुने गए थे। इस बीच महिंद्रा भाईयों ने अपने जमीन पर गिरे बिजनेस को एक बार फिर उठाने का फैसला किया और कंपनी का नया नाम महिंद्रा एंड महिंद्रा रखा।इस तरह महिंद्रा ने स्टील तो नहीं लेकिन कार से लेकर ट्रैक्टर तक कई वाहनों का निर्माण किया, जिसकी वजह से देश भर में इस कंपनी की वाहवाही होने लगी। आज महिंद्रा ग्रुप की कुल संपत्ति 22 बिलियन डॉलर यानी 14, 500 करोड़ रुपए है।

इस कंपनी का कारोबार भारत समेत 100 से ज्यादा देशों में फैला हुआ है, जबकि महिंद्रा ग्रुप 150 कंपनियों के जरिए देशभर में 2.5 लाख से ज्यादा लोगों को रोज़गार प्राप्त करती है। महिंद्रा ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा हैं, जिन्होंने अपनी मेहनत के दम पर कंपनी को टॉप लेवल पर पहुँचा दिया है।

बिसलेरी (Bisleri)

दुनिया भर में इतना पानी मौजूद है, लेकिन इसके बावजूद भी बिसलेरी ने बोतल में पीने का पानी बेचकर करोड़ों का बिजनेस खड़ा कर दिया है। हालांकि शुरुआत में बिसलेरी पानी बेचने वाली कंपनी नहीं थी, बल्कि इसकी शुरुआत मलेरिया की दवाई बेचने वाली कंपनी के रूप में की गई थी।

भारत में बिसलेरी की शुरुआत एक इटैलियन बिजनेसमैन Felice Bisleri ने की थी, लेकिन साल 1921 में Felice के निधन के बाद इस कंपनी को उनके फैमिली डॉक्टर रोजिज ने खरीद लिया था। इसके बाद डॉक्टर रोजिज ने अपने एक वकील दोस्त के बेटे खुशरू संतुक के साथ मिलकर बिसलेरी का नया व्यापार शुरू करने का फैसला किया।

डॉक्टर रोजिज और खुशरू ने सोचा कि वह बिसलेरी को पीने का पानी बेचने वाली कंपनी के रूप में शुरू करेंगे, जिसके तहत साल 1969 में मुंबई के ठाणे में पहला बिसलेरी वाटर प्लांट लगाया गया। उस समय बिसलेरी के पानी की बोतल की कीमत 1 रुपया हुआ करती थी, इसके साथ कंपनी ने सोडा बेचना भी शुरू कर दिया था। इस तरह बिसलेरी का बिजनेस शुरुआत में अमीर वर्ग के लोगों तक ही सीमित था, क्योंकि वही लोग बोतल बंद पानी और सोडा पीना पसंद करते थे। फिर धीरे-धीरे बिसलेरी को 5 स्टार होटल और महंगे रेस्टोरेंट्स में भी बेचा जाने लगा, लेकिन अभी भी बिसलेरी आम लोगों की पसंद और पहुँच से दूर था।

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ऐसे में खुशरू संतुक ने बिसलेरी को घर-घर तक पहुँचाने के लिए प्रमोशन और विज्ञापन का सहारा लिया, जिसमें पार्ले कंपनी के मालिक चौहान ब्रदर्स ने उनकी मदद की। इस तरह बिसलेरी की पेकिंग से लेकर उसके डिजाइन में कुछ बदलाव किए गए, जिसके बाद पानी की इस बोतल को बाज़ार में उतारा गया।

विज्ञापन और प्रमोशन की वजह से बिसलेरी की बिक्री में तेजी आने लगी थी, जिसकी वजह से धीरे-धीरे इस कंपनी का व्यापार बढ़ता चला गया। आज बिसलेरी भारत में सील्ड वाटर बोतल इंडस्ट्री में 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखती है, जिसके पूरे देश में 135 वाटर प्लांट्स मौजूद हैं।

इतना ही नहीं भारत में रोजाना 2 करोड़ लीटर से ज्यादा पीने का पानी बिसलेरी के जरिए बिक जाता है, जिसकी वजह से इस कंपनी की मार्केट वैल्यू 24 बिलियन डॉलर पहुँच चुकी है। हालांकि यह माना जा रहा है कि साल 2023 तक बिसलेरी का बिजनेस 60 बिलियन डॉलर की मार्केट वैल्यू को भी पार कर जाएगा।

फेविकोल (Fevicol)

आप सभी के घर में फेविकोल की ट्यूब या डिब्बा जरूर रखा होगा, जिसकी मदद से कागज से लेकर पेंट तक सब कुछ आसानी से चिपकाया जा सकता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि फेविकोल भारत का इतना प्रसिद्ध ब्रांड कैसे बना।

फेविकोल बनाने का श्रेय गुजरात के भावनगर जिले के महुवा गाँव से ताल्लुक रखने वाले बलवंत पारेख  को दिया जाता है, जो वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुंबई शिफ्ट हो गए थे। हालांकि कुछ समय तक वकालत करने के बाद बलवंत पारेख का मन बदल गया और उन्होंने डाइंग और प्रिंटिंग प्रेस में नौकरी करना शुरू कर दिया।

इसके कुछ समय बाद बलवंत ने वह नौकरी छोड़ दी और एक लकड़ी के व्यापारी के कार्यालय में चपरासी की जॉब करने लगे, इस दौरान उन्होंने लकड़ी को काटने से लेकर उसे आकार देने और फिर चिपकाने जैसे विभिन्न काम सीख लिये थे।

बलवंत पारेख ने देखा था कि लकड़ी का काम करने वाले कारीगर दो टुकड़ों को आपस में जोड़ने के लिए जानवरों की चर्बी से बने गोंद का इस्तेमाल करते थे, जिससे बहुत बुरी गंध आती थी। इसके अलावा उस गोंद को घंटों तक आग में गर्म करना पड़ता था, जिसकी वजह से उसकी गंध हवा में चारों तरफ फैल जाती थी और मजदूरों को सांस लेने में दिक्कत होती थी।

ऐसे में बलवंत पारेख ने साल 1947 में भारत के आजाद होने के बाद गोंद बनाने का फैसला लिया, जिसे इस्तेमाल करना आसान हो और उसमें बदबू भी न आए। अपने इस आइडिया पर काम करते हुए बलवंत पारेख ने सिंथेटिक रसायन के प्रयोग से गोंद बनाने का तरीका खोज निकाला।

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इसके बाद उन्होंने अपने भाई सुनील पारेख के साथ मिलकर साल 1959 में पिडिलाइट ब्रांड की स्थापना की, जो बाद में फेविकोल के नाम से पूरे भारत में मशहूर हो गया था। यह देश का पहला ऐसा गोंद था, जिसका रंग सफेद था और उसमें से खुशबू आती थी।

इस तरह फेविकोल की शुरुआत हुई, जो देखते ही देखते करोड़ों भारतीयों की पसंद बन गया। आज यह कंपनी 200 से ज्यादा अलग-अलग प्रोडक्ट्स का निर्माण करती है, जिसमें फेविकोल की मात्रा सबसे ज्यादा है। सामान्य परिवार से ताल्लुक रखने वाले बलवंत पारेख ने विभिन्न नौकरियाँ करके फेविकोल जैसे ब्रांड की नींव रखी थी, जिन्हें एशिया के सबसे धनी लोगों की लिस्ट में 45वें स्थान पर रखा गया है। इस वक्त बलवंत पारेख की निजी संपत्ति 1.36 बिलियन डॉलर है, जबकि उन्होंने बहुत सारा पैसा सामाजिक कार्यों में खर्च किया है।

ओबेरॉय होटल्स ग्रुप (The Oberoi Group)

आपने भारत में मौजूद ओबेरॉय होटल ग्रुप के बारे में तो जरूर सुना होगा, जो अलग-अलग शहरों में लग्जरी होटल और रिसॉर्ट की सुविधा उपलब्ध करवाता है। इस होलट ग्रुप की स्थापना साल 1934 में मोहन सिंह ओबेरॉय ने की थी, जिनका जन्म 15 अगस्त 1898 में पंजाब (वर्तमान के पाकिस्तान) में हुआ था।

मोहन सिंह ओरेबॉय के जन्म के महज 6 महीने बाद ही उनके पिता का निधन हो गया था, जिसकी वजह से उनकी माँ ने बड़ी मुश्किलों के साथ उनकी परवरिश की। मोहन सिंह ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, ताकि उन्हें अच्छी नौकरी मिल सके और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में सुधार आए।

लेकिन काफी कोशिश करने के बावजूद भी मोहन सिंह को नौकरी नहीं मिली, जिसके बाद उन्होंने एक जूता बनाने वाली फैक्ट्री में मजदूरी करना शुरू कर दिया था लेकिन कुछ समय बाद वह फैक्ट्री भी बंद हो गई। इस तरह समय बीतता चला गया और एक दिन मोहन सिंह को शिमला में काम करने का ऑफर मिला, जिसके लिए मोहन ने तुरंत हामी भर दी।

इसके बाद मोहन सिंह ओबेरॉय अपनी माँ से 25 रुपए लेकर शिमला चले गए, जहाँ उन्हें 40 रुपए प्रति महीना की सैलेरी पर उस समय के सबसे बड़े होटल सिसिल में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी। वहाँ रहकर मोहन सिंह ने होटल चलाने से लेकर गेस्ट को खुश करने तक के सारे तरीके सीख लिये, इसके साथ ही अपनी तनख्वाह का कुछ हिस्सा बचत के रूप में जमा करते रहे।

इस तरह 14 अगस्त 1935 को आखिरकार मोहन सिंह ओबेरॉय ने होटल सिसिल को 25, 000 रुपयों में खरीद कर सभी को चौंका दिया, क्योंकि एक क्लर्क की नौकरी पर होटल खरीदना कोई बच्चों का खेल नहीं था। यहाँ से मोहन सिंह ने ओबेरॉय होटल ग्रुप की शुरुआत की, जिसके बाद उन्होंने एक के बाद एक कई होटल्स खरीदे और अपना व्यापार बढ़ाना शुरू कर दिया।

मोहन सिंह ओबेरॉय की मेहनत और लगन की वजह से ओबेरॉय ग्रुप आज भारत की दूसरी सबसे बड़ी और नामी होटल चैन है, जिसका व्यापार भारत समेत इंडोनेशिया, UAE, सऊदी अरब और मिस्र समेत अलग-अलग देशों में फैला हुआ है। ओबेऱय होटल ग्रुप अपने मेहमानों को लग्जरी सर्विस के साथ-साथ क्रूज शीप की सुविधा भी देता है, जो 5 अलग-अलग देशों की सैर करवाने के लिए जाना जाता है।

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डाबर (Dabur)

बच्चों की तेल मालिश हो या फिर सर्दी जुकाम से बचने के लिए च्यवनप्राश का सेवन, अगर अच्छी सेहत चाहिए तो डाबर पर भरोसा करना तो बनता है। आज डाबर के प्रोडक्ट भारत के लगभग हर शहर और घर में देखने को मिल जाते हैं, जो एक भरोसेमंद ब्रांड का रूतबा हासिल कर चुका है।

डाबर की शुरुआत साल 1884 में पश्चिम बंगाल के कलकत्ता शहर में हुई थी, जिसकी नींव एक आयुर्वेदिक डॉक्टर एस.के बर्मन ने रखी थी। दरअसल डॉक्टर एस.के बर्मन एक आयुर्वेदिक हेल्थकेयर प्रडोक्ट की शुरुआत करना चाहते थे, जिससे लोगों की खराब सेहत आसानी से ठीक हो जाए।

डॉक्टर बर्मन ही वह शख्स थे, जिन्होंने हैजा और मलेरिया को ज़ड़ से खत्म करने के लिए कारगार दवाईयाँ बनाई थी। ऐसे में उनके द्वारा शुरू किए गए आयुर्वेदिक प्रोडक्ट को डाबर नाम दिया गया, जिसमें डा-डॉक्टर और बर-बर्मन को दर्शाता है। डॉक्टर बर्मन जड़ी बूटियों को अपने हाथों से कूटकर अलग-अलग उत्पादों का निर्माण किया करते थे, जिनका इस्तेमाल करने से लोगों को काफी फायदा होता था।

इस तरह डाबर के प्रोडक्ट्स धीरे-धीरे कलकत्ता समेत भारत के अन्य राज्यों में भी मशहूर होने लगे, जिसमें बच्चों के मालिश वाले तेल से लेकर च्यवनप्राश, खांसी की दवा दशमूलारिष्ट और अन्य प्रकार के प्रडोक्ट्स शामिल थे। इन सभी प्रोडक्ट्स की एक खासियत थी कि इनमें जड़ी बूटियों का मिश्रण बहुत ही नाप तोल कर किया था, जिसकी वजह से साल 1896 तक डाबर देश का नंबर वन ब्रांड बन चुका था।

हालांकि साल 1907 में डॉक्टर बर्मन का निधन हो गया, लेकिन वह डाबर की कमान अपने बेटों को सौंप गए थे। ऐसे में कलकत्ता से शुरू हुई डाबर कंपनी की पहली बड़ी फैक्ट्री साल 1972 में दिल्ली के साहिबाबाद में लगाई गई, जहाँ बनने वाले प्रोडक्ट्स को देश के अलग-अलग शहरों में सप्लाई किया जाता था।

आज डाबर ढेर सारे प्रोडक्ट्स का निर्माण करता था, जिसका इस्तेमाल बच्चे से लेकर बूढ़े तक हर उम्र व वर्ग का व्यक्ति आसानी से कर सकता है। डाबर के जरिए डॉक्टर बर्मन और उनके परिवार ने खूब संपत्ति अर्जित की है, जिसके चलते उनकी कुल संपत्ति 11.8 बिलियन डॉलर पहुँच गई है।

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