बीते दस वर्षों के दौरान स्कूलों में नामांकन के आंकड़ों में करीब गिरावट आई है।बच्चों के मामले में यह आंकड़ा और ज्यादा है। एक ताजा अध्ययन से यह बात सामने आई है कि देश में वर्ष 2012-13 में शिक्षा के लिए एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (यूडीआईएसई) शुरू की गई थी।
क्या कहते हैं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन प्लानिंग ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन (NIEPA) के प्रोफेसर
प्रोफेसर अपने शोध पत्र में कहते है कि भारत में स्कूल जाने वालों की आबादी में गिरावट चिंता की वजह है। उनका कहना है कि बीते एक दशक से पहली से बारहवीं कक्षा तक हर स्तर पर स्कूल जाने वालों की तादाद लगातार कम हो रही है।
लेकिन केंद्र सरकार इस गिरावट की वजह का पता लगा कर उनको दूर करने के बजाय वर्ष 2018-19 के आंकड़ों का हवाला देते हुए स्थिति में सुधार के दावे कर रही है।
उसी साल नामांकन में सबसे कम गिरावट दर्ज की गई थी।रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते एक दशक के दौरान वर्ष 2015-16 में सबसे अधिक नामांकन देखा गया था।
वर्ष 2018-19 में यह सबसे कम नामांकन
वर्ष 2018-19 में यह सबसे कम 24.83 करोड़ नामांकन हुए थे।सरकार फिलहाल इस बात का पता लगा रही है कि वर्ष 2018-19 की तुलना में 2019-20 में कुल नामांकन में 2.6 लाख की वृद्धि कैसे हुई। उस वर्ष यूडीआईएसई द्वारा कवर किए गए स्कूलों की संख्या में 43,292 की कमी के बावजूद वर्ष 2019-20 में नामांकन में 2018-19 की तुलना में वृद्धि दर्ज की गई।
भारी गिरावट वाले राज्य
बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे कुछ राज्यों में एक साल भारी नामांकन में भारी गिरावट के बाद अगले शिक्षण सत्र में तेजी से वृद्धि से नामांकन के आंकड़ों की विश्वसनीयता और गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े होते हैं।उन्होंने नामांकन के आंकड़ों की गुणवत्ता सुधारने पर जोर दिया है ताकि सही तस्वीर सामने आ सके।
सरकारी रिपोर्ट के हिसाब से घटते नामांकन
एक सरकारी रिपोर्ट में भी स्वीकार किया गया था कि प्राथमिक कक्षाओं के बाद बच्चों का नामांकन धीरे धीरे कम होता जाता है।
छठी से आठवीं कक्षा में सकल नामांकन अनुपात जहां 91 फीसदी है।
नौवीं व दसवीं में यह महज 79.3 फीसदी है।
11वीं और 12वीं कक्षा के मामले में यह आंकड़ा 56.5 फीसदी है।
आखिर नामांकन में गिरावट की वजह क्या है?
शिक्षाशास्त्रियों का कहना है कि निजी स्कूलों की फीस लगातार बढ़ रही है। यह निम्न मध्यवर्ग की क्षमता से बाहर हो गई है।
दूसरी ओर सरकारी स्कूलों में आधारभूत ढांचे और संबंधित विषयों के शिक्षकों की कमी से छात्रों में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी खत्म हो रही है। कुछ तो यह भी कहते हैं कि कई छात्र तो मिड डे मील और दूसरी सरकारी योजनाओं के लालच में स्कूल पहुंचते थे।लेकिन अब कई स्कूलों में ऐसी योजनाएं भी बंद हो गई हैं तो छात्रों का आना भी बंद हो गया है।
क्या बताते है स्कूल के प्रिंसिपल?
कुछ स्कूल के प्रिंसिपल का मानना है कि सरकार इन स्कूलों में न तो खाली पदों को भरने में दिलचस्पी लेती है और न ही आधारभूत ढांचा मुहैया कराने में।
निजी स्कूलों की महंगी फीस और दूसरे खर्च उठाना सबके बस की बात नहीं है।
कोरोना महामारी के दौरान के आंकड़े तो और भी गंभीर हो गए, नौकरियां छुटने के कारण स्कूलों की फीस नहीं भर पाने की वजह से भारी तादाद में स्कूलों से बच्चों के नाम कट गए हैं और नए छात्रों का दाखिला नहीं हो सका है।
कमज़ोर आर्थिक स्थिति के वजह बाल मजदूरी पर विवश
सरकारी स्कूलों में फीस कम होने की वजह से नामांकन की दर जरूर बढ़ी है पर इन स्कूलों में ज्यादातर शिक्षक पठन-पाठन की बजाय निजी कामकाज, निजी ट्यूशन और राजनीति में रुचि लेते हैं। जिस वजह से कुछ समय बाद छात्रों का इंटरेस्ट खत्म हो जाता है।
ग्रामीण इलाकों में तो अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति की वजह से लोग बच्चों को थोड़ा-बहुत पढ़ाने के बाद रोजगार में लगा देते हैं, और यही वजह है कि देश में बाल मजदूरी अब तक खत्म नहीं हो सकी है।
जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत
नामांकन दर में गिरावट में अंकुश लगाने के लिए सरकार को ठोस योजना के साथ आगे आना होगा और सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर जागरूकता अभियान चलाना होगा ताकि ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा की अहमियत बताई जा सके।
लेकिन उससे पहले सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर और आधारभूत ढांचा दुरुस्त करना सबसे जरूरी है।साथ ही साथ सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति भी की जानी जरूरी है।
Article by- Nishat Khatoon
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