उड़ीसा के भुवनेश्वर में एक कार्यक्रम में भाषण देने के बाद इंदिरा गांधी अपना दौरा बीच में ही छोडकर दिल्ली लौट आईं। खबर आई थी कि उनके घर की एक गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया है जिसमें उनके पोते और पोती सवार थे।अगले दिन 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा का एक इंटरव्यू था, उस वक़्त के जाने माने लेखक और अभिनेता पीटर उत्सिनोव के साथ।
सुबह के सवा नौ बजने में एक दो मिनट कम थे। इंदिरा तैयार होकर अपने आवास 1, सफदरजंग रोड से निकलकर उसी परिसर के एक दूसरे बंगले 1, अकबर रोड के लिए निकलीं। ये इंदिरा का ऑफिस था।इंदिरा की सुरक्षा में तैनात रहे दोनों सुरक्षाकर्मियों ने पांच महीने पहले सेना के ऑपरेशन ब्लू स्टार का बदला ले लिया था।आज 29 दिसंबर है और आज की तारीख़ का संबंध है इंदिरा गांधी की मौत के बाद हुए उस लोकसभा चुनाव से जिसे आडवाणी ने कांग्रेस का शोकसभा चुनाव कहा था।
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इंदिरा गांधी बनी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री
इंदिरा गांधी हमेशा अपने पिता से दोस्तों की तरह बात करती थी, और जब वो 22 की थीं तो पार्टी के अंदर की खींचतान पर अपने उदास पिता को किसी अभिभावक की तरह ढाढस बंधाती है, उसकी बातों में दुलार टपकता था, दार्शनिकता भी झलकती थी।
इंदिरा अपने एक पत्र में लिखती हैं,
‘यदि मैं आपका उदासी से भी कुछ अधिक उदास वाला चेहरा नहीं देखती रहूं, तो यह इतनी बुरी बात भी नहीं होगी, दुलारे पापू मेरे लाडले इतने पराजयवादी तो न बनिए। खुद के अलावा आपको कोई और नहीं हरा सकता। भारतीय राजनीति में घुसती जा रही इन छुद्रताओं को जड़ें जमाते देख बहुत दुःख होता है।इन से आप बहुत ऊपर हैं. लेकिन इस सबसे आप खुद पर कुछ भी फर्क न पड़ने दीजिएगा।ऐसा दुनिया भर में होता है। और ये दौर भी हमेशा बीत जाते हैं.’
इंदिरा दिलो-दिमाग में वैचारिकता का तूफ़ान लिए बड़ी हुईं, वो मानसिक तौर पर इतनी मजबूत हो गईं थीं कि भारत की तीसरी प्रधानमंत्री बनीं। और वो निर्णय लेने में इतनी कठोर हो गईं कि साल 1975 में भारत का पहला और आखिरी आपातकाल लगा दिया।आपातकाल की व्यथा-कथा, 25 जून 1975 की उस रात की कहानी, समसामयिक कारण, सब हम आपको पहले भी बता चुके हैं, इससे आगे बढ़ते हैं।
आपातकाल के बाद क्या हुआ?
आपातकाल का असर उल्टा हुआ था। इंदिरा को भी इसका अंदाजा था।इसीलिए लोकसभा का कार्यकाल नवंबर में ख़त्म होता इसके पहले ही इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी 1977 को चुनाव की घोषणा कर दी।जनता और विपक्ष भौचक्का था और इधर इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार शुरू कर दिया। हज़ारों किलोमीटर की यात्रा की।जम्मू कश्मीर और सिक्किम छोड़कर हर राज्य में गईं और करीब ढाई सौ चुनावी जनसभाएं कीं। लेकिन इंदिरा को ये समझ आ गया था कि इस बार जनता बिफर चुकी है।
आलम ये था कि कांग्रेस को जनसभा में भीड़ जुटाने के लिए दूरदर्शन पर साल 1973 की ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘बॉबी’ चलानी पड़ रही थी और अटल बिहारी की जनसभा में लोग उनके पढ़े शेरों की एक-एक लाइन पर मिनटों ताली बजा रहे थे।जनता ने अटल की सुनाई पंक्तियों में इमरजेंसी का काला प्रेत पहचान लिया था। भला वापस उसे जगाने की भूल कौन करता। 16 से 19 मार्च तक चुनाव हुए। और 22 मार्च 1977 को परिणाम आ गया। ये पहला मौका था कि कांग्रेस भारत में बुरी तरह हारी थी।
ऑपरेशन ब्लू स्टार
साल 1984 , भोपाल गैस त्रासदी का साल, ऑपरेशन ब्लू स्टार और इंदिरा गांधी की ह्त्या का साल l केंद्र में इंदिरा की सरकार चल रही थी। लेकिन पंजाब की राजनीति अस्थिर थी।यूं तो पंजाब में खींचतान साल 1970 से ही चल रही थी। लेकिन असली समस्या शुरू हुई साल 1978 में जब अकाली दल ने आनंदपुर प्रस्ताव पारित किया। इसमें केंद्र सरकार से मांग की गई थी कि उसका हस्तक्षेप सिर्फ रक्षा और विदेश नीति जैसे मुद्दों में रहे, बाकी मामलों में राज्य को ही निर्णय लेने का अधिकार हो। और यही मांगें आगे चलकर रोष और बगावत में बदल गईं।इस बगावत का चेहरा बना जरनैल सिंह भिंडरावाले। सिख चरमपंथ की शुरुआत हो चुकी थी।खालिस्तान की मांग उठ रही थी और हो रही थी हिंसा जिसमें आम लोग मारे जा रहे थे, पुलिसकर्मी, CRPF के जवान और पत्रकार मारे जा रहे थे। साल 1984 तक अकाली दल ने भी अपने मोर्चे का विलय भिंडरावाले के साथ कर लिया था।
इंदिरा ने कई बार अकालियों से वार्ता की कोशिश की, लेकिन आख़िरी चरण की बातचीत फ़रवरी 1984 में तब टूट गई जब हरियाणा में सिखों के ख़िलाफ़ हिंसा हुई।अप्रैल 1984 में इंदिरा ने पंजाब में दरबारा सिंह की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया।अब तक हुई हिंसक घटनाओं में करीब 300 लोग मारे जा चुके थे।
इंदिरा के मुंह से निकला, ‘हे भगवान् मुझे तो बताया गया था कि सब कंट्रोल हो जाएगा. किसी की जान नहीं जाएगी.’
पर कोई फायदा नही हुआ और जानें गईं।भीषण ख़ून-ख़राबा हुआ।अकाल तख़्त पूरी तरह तबाह हो गया। अकाल तख्त सिखों के लिए धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। ये पहली बार था जब स्वर्ण मंदिर से छह, सात और आठ जून को पाठ नहीं हो पाया। सिर्फ गोलियों की आवाजें आईं थी। भारत सरकार के श्वेतपत्र के मुताबिक 83 सैनिक मारे गए और 249 घायल हुए। 493 चरमपंथी और आम नागरिक मारे गए, 86 घायल हुए और करीब 1600 को गिरफ़्तार किया गया। लेकिन ये आंकड़े विवादित माने जाते हैं।
हालांकि आपरेशन ब्लू स्टार काफी हद तक सफल रहा, भिंडरावाले को मार गिराया गया। लेकिन ये इंदिरा की कूटनीतिक हार थी। और अब इंदिरा को इसके बदले का शिकार होना था।
इंदिरा की मौत
23 जून 1980 की भोर इंदिरा के चहेते बेटे और इमरजेंसी के निर्णय में अपनी मां के साथ बराबर के हिस्सेदार संजय गांधी की भी असमय मृत्यु हो चुकी थी. एयरक्राफ्ट के साथ कलाबाजियां करते वक़्त हुए क्रैश में. और अब तारीख़ थी 31 अक्टूबर 1984. ये दूसरी बार था जब 1, सफदरजंग रोड के पते पर सुबह-सुबह मातम पसरने वाला था. हर दिन की तरह इंदिरा सुबह 6 बजे सोकर उठीं, योग और एक्सरसाइज की, तैयार हुईं और अपने ऑफिस की तरफ़ निकल पड़ीं।कहीं दूर नहीं जाना था,इसीलिए आज बुलेटप्रूफ जैकेट भी नहीं पहनी थी। उन्हे लगा कि बाहर जाना नहीं है, सिर्फ इंटरव्यू देना है, और कैमरे के सामने बुलेट प्रूफ जैकेट में अच्छी भी नहीं लगेंगीं। इंदिरा आधे रास्ते ही पहुंचीं।पीछे-पीछे दिल्ली पुलिस का एक कॉन्स्टेबल,ऊपर छाता ताने हुए। उनसे कुछ फीट पीछे इंदिरा के निजी सचिव राजेंद्र कुमार धवन । उनके ठीक पीछे चपरासी और एक दरोगा।
इंदिरा अभी लकड़ी के उस छोटे गेट तक पहुंची ही थीं कि सामने से दरोगा बेअंत सिंह नमूदार हुआ।बेअंत पिछले 9 साल से उनके सुरक्षा अमले का हिस्सा था।कुछ महीने पहले उसे पीएम की सिक्योरिटी से एडवाइज़र और पूर्व रॉ चीफ आरएन काव के कहने पर हटा दिया गया था। लेकिन बेअंत ने सीधे मैडम से अपील की और ट्रांसफर ऑर्डर रुकवा लिए।
लेकिन बेअंत तो मैडम की ह्त्या के इरादे से ही दोबारा उनकी सिक्योरिटी में शामिल हुआ था, दूसरे हत्यारे सतवंत सिंह ने भी अपनी ड्यूटी भीतरी हिस्से में लगवाई थी। पहले बेअंत सिंह और फिर सतवंत सिंह दोनों ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर इंदिरा से ऑपरेशन ब्लू स्टार का बदला ले लिया था।बेअंत सिंह ने भागने कीं कोशिश की, लेकिन मौके पर ही मार गिराया गया। सतवंत सिंह और इंदिरा की ह्त्या की साजिश में शामिल एक और शख्स केहर सिंह को बाद में फांसी दे दी गई।
आम चुनाव में कांग्रेस की जीत
इंदिरा गांधी की ह्त्या के समय राजीव अमेठी से सांसद हुआ करते थे। ये सीट संजय गांधी की मौत के बाद खाली हुई थी। जिस पर जून 1981 में उपचुनाव हुआ और राजीव जीतकर संसद पहुंचे। 1983 में राजीव कांग्रेस के महासचिव भी बन गए थे। जब इंदिरा की मौत की खबर मिली तब राजीव बंगाल दौरे पर थे। बंगाल से दिल्ली आ गए।राजीव को बताया गया कि कैबिनेट और पार्टी चाहती है कि प्रधानमंत्री का पद वह संभालें।कहा जाता है कि सोनिया इसके खिलाफ़ थीं। लेकिन राजीव प्रधानमंत्री बने।
इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या से मिली सहानुभूति और राजीव गांधी का मेहनतकश चुनाव प्रचार बेहद कामयाब हुआ।कहा ये भी जाता है कि राजीव गांधी और तत्कालीन RSS प्रमुख बाला साहब देवरस के बीच गुप्त बैठक हुई थी। और इस चुनाव में RSS ने कांग्रेस की मदद की थी। हालांकि आज भाजपा इसे नकारती है।
BJP का पहला चुनाव
भाजपा के लिए ये पहला चुनाव था, 1980 में ही पार्टी बनी थी। अटल बिहारी बाजपेयी की अध्यक्षता में। भाजपा ने 224 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे l लेकिन सिर्फ 2 सीटों पर जीत मिली।आंध्रप्रदेश की हनमकोंडा सीट से पीवी नरसिंह राव को हराकर सी। जंगा रेड्डी और गुजरात की मेहसाणा सीट से A.K. पटेल जीते। भाजपा के दिग्गज नेता भी हारे।
अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से माधवराव सिंधिया ने हरा दिया, वहीं यूपी के दिग्गज नेता हेमवती नंदन बहुगुणा को अमिताभ बच्चन ने धूल चटाई। बेशक ये इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति का नतीजा था।यूं तो लाल कृष्ण आडवाणी ने खुद पहला लोकसभा चुनाव साल 1989 में लड़ा था। लेकिन 1984 के लोकसभा चुनाव को आडवाणी शोकसभा चुनाव बताते थे।जबकि असलियत ये थी कि ये भाजपा के लिए सबसे बुरी हार थी।
इंदिरा की मृत्यु के ठीक दो महीने बाद यानी 31 दिसंबर को राजीव गांधी ने अगली कैबिनेट की घोषणा कर दी। रिकॉर्ड बहुमत वाली ये सरकार पूरे 5 साल चली। लेकिन देश के अंतिम दक्षिणी छोर पर कुछ ऐसा चल रहा था, जिसे राजीव न समझ पाए और न संभाल पाए।
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