असम की सरकार ने कहा है कि अब किसी भी पुलिस अफसर को किसी भी बटालियन के पुलिसकर्मी का इस्तेमाल निजी घरेलू कार्यों में करने की इजाजत नहीं होगी. मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने बटालियन के कमांडेंट (सीओ) और तमाम पुलिस अधीक्षकों से इस बारे में 10 दिनों के भीतर एक लिखित हलफनामा देने का निर्देश दिया है. उन्होंने कहा है कि किसी भी घरेलू सहायक के इस्तेमाल की स्थिति में संबंधित अधिकारी को अपनी जेब से उसका वेतन देना होगा. सरमा ने उन आरोपों पर रिपोर्ट देने का सख्त निर्देश दिया है जिसमें कहा गया है कि विभिन्न पदों पर तैनात पुलिस अधिकारियों ने निजी सुरक्षा अधिकारी, हाउस गार्ड और घरेलू सहायक आदि को बिना इजाजत के निजी तौर पर रखा है. मुख्यमंत्री सरमा के पास गृह विभाग भी है.
कुछ पुलिस अधिकारियों ने विभिन्न सशस्त्र बटालियनों के कर्मियों को निजी और घरेलू कामों में लगाया
मुख्यमंत्री ने कहा कि ऐसे आरोप हैं कि कुछ पुलिस अधिकारियों ने विभिन्न सशस्त्र बटालियनों के कर्मियों को निजी और घरेलू कामों में लगाया है. उन्होंने कहा, “मैंने सशस्त्र बटालियनों के कमांडेंट और विभिन्न जिलों के पुलिस अधीक्षकों से इस मामले में 10 दिनों के भीतर विस्तृत रिपोर्ट और जानकारी देने के लिए कहा है.” उनका कहना था कि पुलिस वालों की भर्ती कानून और व्यवस्था को बनाए रखने और सरकारी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए की जाती है. वह कहते हैं, “अबकी हम यह परंपरा खत्म करना चाहते हैं. अगर उच्चाधिकारियों की रिपोर्ट, हलफनामे या जांच के दौरान कोई अधिकारी किसी निजी सुरक्षा गार्ड या दूसरे जवान से निजी काम लेता है तो उसे उसका वेतन भी देना होगा. सरकार ऐसे जवानों का वेतन बंद कर देगी.”
इससे पहले असम कैबिनेट ने फैसला किया था कि सुरक्षा समीक्षा के आधार पर और संवैधानिक पदों पर रहने वालों के लिए ही एक निजी सुरक्षा अधिकारी (पीएसओ) को तैनात किया जाएगा.
पूर्व अधिकारियों और कई अन्य लोगों के घरों पर भी ऐसे जवानों की तैनाती होती रही
देश में सुरक्षा बलों के उच्चाधिकारियों पर निचले पद वाले जवानों से निजी काम लेने या आवास पर घरेलू सहायक के तौर पर इस्तेमाल करने की परंपरा बहुत पुरानी है. समय-समय पर यह आरोप उठता रहा है. लेकिन ताकतवर लॉबी की सक्रियता के कारण यह मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है. हाल की एक रिपोर्ट से यह बात सामने आई थी कि उच्चाधिकारियों के अलावा तमाम मंत्रियों, पूर्व अधिकारियों और कई अन्य लोगों के घरों पर भी ऐसे जवानों की तैनाती होती रही है. मिसाल के तौर पर देश के सबसे बड़े केंद्रीय अर्धसैनिक बल सीआरपीएफ की कई बटालियनों में भले ही जवानों की कमी हो, लेकिन वीवीआईपी लोगों के घरों पर इन जवानों की तैनाती में कमी नहीं आई है.
खास बात यह है कि इन जवानों को वर्षों से बगैर किसी लिखित आदेश के मौखिक तौर पर तैनात किया गया है. उन घरों पर इनकी भूमिका ड्राइवर, कुक या निजी सहायक की होकर रह गई है. सीआरपीएफ जवानों को सहायक, ड्राइवर, कुक या अन्य किसी काम से घर पर रखने वाले वीवीआईपी नेताओं की सूची में मौजूदा केंद्रीय मंत्री, पूर्व मंत्री, केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारी के अलावा सीआरपीएफ के डीजी, सीआरपीएफ के पूर्व डीजी, एडीजी, आईजी और डीआईजी तक शामिल हैं. इनमें से कुछ जवानों के अटैचमेंट या तैनाती को पांच साल से ज्यादा समय हो गया है.
सराहना भी संदेह भी
असम सरकार की इस पहल की सराहना की जा रही है. लेकिन लोगों के मन में यह भी शक है कि क्या जमीन पर यह आदेश लागू हो सकेगा? ऊपरी असम के एक जिले में एक अधिकारी के आवास पर बीते तीन वर्षों से तैनात एक जवान ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “हम तो अपने अधिकारियों के आदेश से मजबूर हैं. उनका मौखिक आदेश नहीं मानने की स्थिति में हमारा सर्विस रिकार्ड खराब हो सकता है और नौकरी तक से हाथ धोना पड़ सकता है.”
एक सामाजिक कार्यकर्ता मनोजित कुमार शर्मा कहते हैं, “राज्य सरकार की मंशा तो ठीक है. लेकिन क्या सुरक्षा बलों के उच्चाधिकारियों की मजबूत लॉबी मुफ्त सहायक का मौका अपने हाथ से निकलने देगी. जमीनी स्तर पर लागू होने की स्थिति में ही इसका फायदा मिल सकेगा. ऐसे जवानों पर अत्याचार और शोषण के मामले भी सामने आते रहे हैं.”
कोलकाता में एक पूर्व पुलिस अधिकारी सुमन कुमार कहते हैं, “असम सरकार की यह पहल सकारात्मक है. पुलिसवालों का काम आम लोगों की सुरक्षा करना और कानून व व्यवस्था की स्थिति बनाए रखना है, किसी अधिकारी के घर की साग-सब्जी लाना या उसके बच्चों को स्कूल पहुंचाना नहीं. अगर यह पहल कामयाब रहती है तो दूसरे राज्यों को भी इसे अपनाना चाहिए.”
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