एक इफ्तार पार्टी ने बिहार की सियासत में नई चर्चाओं को जन्म दे दिया है। यह चर्चा तब शुरू हुई जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के द्वारा 28 अप्रैल को आयोजित एक इफ्तार पार्टी कार्यक्रम में पहुंचे। तेजस्वी यादव के इफ्तार पार्टी में उनके पहुंचने को बेवजह नहीं माना जा रहा है और इसके सियासी अर्थ निकाले जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब अपनी राजनीतिक पारी में एक नए बदलाव की ओर देख रहे हैं।
यह बदलाव वे बिहार में रहते हुए सत्ता के नए समीकरण के रूप में देख रहे हैं या वे अपने लिए केंद्रीय राजनीति में नई भूमिका तलाश रहे हैं, इस पर अभी कोई कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। लेकिन माना जा रहा है कि भाजपा के साथ जेडीयू के रिश्तों के बीच सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है और बिहार में नई राजनीतिक परिस्थितियां जन्म ले सकती हैं। ऐसे में बड़ा सवाल है कि आखिर नीतीश कुमार के मन में क्या चल रहा है और आने वाले दिनों में वे क्या कदम उठा सकते हैं?
चुनाव 2020 में आरजेडी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी
दरअसल, बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में आरजेडी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। भाजपा को 74 तो नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को केवल 43 सीटें ही प्राप्त हुई थी। लेकिन जब नीतीश कुमार के आरजेडी से मतभेद बढ़े तो जेडीयू ने पाला बदल करते हुए भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली। लेकिन विधानसभा में ज्यादा बड़ा दल होने के नाते भाजपा के नेताओं को लगता है कि बिहार में उनका मुख्यमंत्री होना चाहिए। भाजपा नेताओं की यह महत्त्वाकांक्षा कई बार जाहिर भी हुई।
कथित तौर पर बीजेपी नेता और मंत्री नीतीश कुमार की उपेक्षा कर रहे हैं। इसका सीधा असर बिहार के प्रशासन पर दिखाई पड़ रहा है जहां अधिकारी किसी की बात नहीं सुन रहे हैं और प्रशासनिक भ्रष्टाचार लगातार बढ़ता जा रहा है। विधानसभा स्पीकर के साथ उनकी बहस को भी इसी कड़ी में देखा गया था। नीतीश कुमार इससे व्यथित हैं। यही कारण है कि माना जा रहा है कि अब नीतीश कुमार एक बार फिर बदलाव की ओर देख रहे हैं।
मजबूरी की सरकार
बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक धीरेंद्र कुमार ने अमर उजाला से कहा कि राज्य में भाजपा और जेडीयू में ‘मजबूरी की सरकार’ चल रही है। भाजपा की मजबूरी है कि वह अपने स्तर पर सरकार बनाने में सक्षम नहीं है। आरजेडी से वैचारिक दूरी के कारण उससे भाजपा का कोई गठबंधन संभव नहीं है। ऐसे में सरकार में रहने के लिए भाजपा को जेडीयू को समर्थन देना उसकी मजबूरी है।
वहीं, नीतीश कुमार भी सरकार चलाने के लिए भाजपा के सामने मजबूर होते दिखाई पड़ रहे हैं। यह मजबूरी कई बार शर्मिंदगी की हद पार करते हुए भी दिखाई पड़ रही है, लेकिन नीतीश कुमार फिलहाल सबकुछ बर्दाश्त करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन तेजस्वी यादव के इफ्तार पार्टी में शामिल होकर उन्होंने यह संदेश जरूर दे दिया है कि यदि भाजपा नेताओं की तलवारें अपने म्यान में वापस नहीं गईं तो वे दूसरे विकल्प भी तलाश सकते हैं।
केंद्र में जाने की संभावना कितनी
दरअसल, नीतीश कुमार लगभग 20 वर्ष तक बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बिहार के विकास के लिए उनके मन में जो भी योजनाएं थीं, उनके जो भी सपने थे, वे उन्हें लागू कर चुके हैं और अपनी पूरी क्षमता आजमा चुके हैं। उनके पास बिहार को देने के लिए नया कुछ नहीं रह गया है। विकास का उनका दावा भी बहुत सफल साबित नहीं हो पाया है। 20 साल के शासनकाल के बाद भी बिहार पिछड़ेपन, बेरोजगारी से बाहर नहीं निकल पाया है। अब वे शराबबंदी जैसे पुराने विचार को लेकर केवल प्रतीकात्मक राजनीति करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं।
पिछले चुनाव में नीतीश कुमार जैसे मंजे और अनुभवी नेता के सामने एक युवा तेजस्वी यादव को सफलता मिलने का यह संकेत भी माना जाना चाहिए कि बिहार अब उनकी राजनीति का विकल्प देखना चाहता है। लोग उनसे आगे का विकल्प देखना चाहते हैं। इस बात की भी संभावना बन सकती है कि अगले चुनाव में उनकी स्थिति ज्यादा मजबूत न हो और पूरा चुनाव केवल आरजेडी और भाजपा के दो आमने-सामने की लड़ाई में तब्दील हो जाए। ऐसे में नीतीश कुमार अब अपने लिए सधी चाल चलना चाहते हैं।
विपक्ष से पीएम पद पर दावेदारी
राजनीतिक गलियारों में इस मुद्दे पर खूब चर्चा हो रही है कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के सामने कौन पीएम पद का उम्मीदवार हो सकता है? कांग्रेस के कमजोर दावे के बीच ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल इस पद पर अपनी दावेदारी ठोंकते हुए दिख रहे हैं। लेकिन इस पूरी चर्चा से नीतीश कुमार दूर हो चुके हैं जो कभी मोदी के सामने सीधे विकल्प के रूप में देखे जाते थे।यदि वे आरजेडी के साथ एक बेहतर तालमेल करें तो वे विपक्ष से मजबूत उम्मीदवार के तौर पर सामने आ सकते हैं।
इससे विपक्ष की राजनीति को भी धार मिल सकती है। बेटे तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य को देखते हुए अपनी पारी खेल चुके लालू यादव उनकी इस दावेदारी के लिए बेहतर फील्डिंग करते हुए भी दिखाई पड़ सकते हैं। प्रशांत किशोर से उनकी करीबी भी उन्हें इस तरफ बढ़ाने में मदद कर सकती है।
भाजपा से नीतीश का साथ एक मजबूरी का ही गठबंधन
राजनीतिक गलियारों में माना जाता है कि भाजपा से नीतीश का साथ एक मजबूरी का ही गठबंधन रहा है। वे कभी उस राजनीति को सही नहीं ठहराते रहे हैं जिसके बूते भाजपा इस समय आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। चूंकि ये बातें जनता के बीच भी हैं, लिहाजा वे एक बेहतर भूमिका में सामने आ सकते हैं। विपक्षी खेमे में भी शायद ही कोई दूसरा नेता इस समय पीएम पद की दावेदारी के संदर्भ में उनसे ज्यादा मजबूत भूमिका अदा कर सकता है।
उपराष्ट्रपति की संभावना नहीं
इस बात की भी चर्चा हो रही है कि भाजपा नीतीश कुमार को उपराष्ट्रपति बनने का ऑफर दे सकती है और बदले में नीतीश कुमार भाजपा के लिए बिहार की राजनीति में खुला मैदान उपलब्ध करा सकते हैं। लेकिन नीतीश कुमार को जानने वाले कहते हैं कि इससे जनता दल यूनाइटेड को पूरी तरह खत्म हो जाने का संकट पैदा हो सकता है। नीतीश कुमार इसके लिए कभी तैयार नहीं होंगे।
वहीं, भाजपा भी नीतीश कुमार को कभी उपराष्ट्रपति नहीं बनाना चाहेगी क्योंकि उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति होते हैं। वे अहम बिलों को पास कराने या अटकाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ऐसे में भाजपा नीतीश जैसे खांटी राजनेता को इस पद का ऑफर देकर अपने ब़ड़े बिलों की राह में बड़ा अवरोधक पैदा करने का खतरा नहीं उठा सकती।
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