संसद या विधानसभा में जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व
प्रजातंत्र में चुनाव राजनीतिक शिक्षा देने का विश्वविद्यालय है। कहा जाता है यह जनता के लिए जनता के द्वारा जनता का शासन है। प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली में जिस प्रकार जनता को अनेक प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं, निर्वाचन का अधिकार भी उनमें से एक है, जिसमें सरकार की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित रहती है। 18 वर्ष या उससे ऊपर सभी मतदाता अपनी भावनाओं एवं विचारों के अनुरूप अपना मत देकर अपने प्रतिनिधि का निर्वाचन करते हैं, जो संसद या विधानसभा में जनता के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भाजपा भी ‘अच्छे दिन’ का वादा करके सत्ता में आई, पर नतीजा क्या हुआ ?
वर्तमान लोकसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है. सभी पार्टियां अपना-अपना गणित लगा रही है. इसके बाद वादों की बरसात होगी, लेकिन क्या चुनाव हमारे देश में पहली बार हो रहा है? नहीं. अनेक बार अनेक तरह से इस देश की जनता ने चुनाव में भाग लिया. इसके बावजूद आम जनता के हालात अंधेरे में कैद हैं. ऐसा क्यों हुआ ? एक समय था जब कांग्रेस ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ बहुत दिनों तक राज किया। इसी तरह 2014 से भाजपा भी ‘अच्छे दिन’ का वादा करके सत्ता में आई, पर नतीजा क्या हुआ ? आप अपने कड़वे अनुभवों से अच्छी तरह परिचित हैं. कुछ क्षेत्रीय पार्टियों ने भी बहुत तरह के वादे किए। सभी एक दूसरे पर कटाक्ष करते हैं और पिसती है आम जनता ।
भ्रष्ट नेता और दिशाहीन राजनीति
यह राजनीति देश की जनता की नैतिक रीढ़ को तोड़ रही है ।आप लोगों को याद दिलाना चाहूंगा कि आजादी में भाग लेने वाले नेताओं का लोग आदर और सम्मान करते थे। उसी दौर की राजनीति को लोग आदर की दृष्टि से देखते थे, मगर आज के इस दौर में ज्यादातर समाजसेवी, बुद्धिजीवी लोग राजनीति ओर नेताओं से दूर रहना पसंद करते हैं, क्यों ? कारण भ्रष्ट नेता और दिशाहीन राजनीति। आज भ्रष्टाचार सामान्य बात हो गई है. फर्क सिर्फ इतना कि किसने ज्यादा किया है, किसने कम किया है, कौन पकड़ा गया है और कौन फरार है। रिश्वत लेना और देना हर स्तर पर स्वाभाविक क्रिया बन गया है।
चुनाव में करोड़ों का खेल होता है. इतना पैसा देता कौन है?
देश की स्थिति इन्होंने ऐसी तैयार की है कि आज रिश्वत नहीं लेने, भ्रष्टाचार नहीं करने को अयोग्यता, नाकाबिलियत ,पागलपन आदि समझा जाता है। यह स्थिति कैसे उत्पन्न हुई? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? यह जो चुनाव हो रहा है, वास्तव में क्या इसके नतीजे जनता तय करती है? क्या यह जनता के जनादेश से होता है? चुनाव में करोड़ों का खेल होता है. इतना पैसा देता कौन है? यह सोचने वाली बात है, कि जो पैसा खर्च करते हैं, पार्टियां उनके गुलाम हो जाती है । चुनाव के समय अगर जनता कहे कि आसमान से चांद ला दीजिए, तो वोट के लिए वह भी लाने को तैयार हो जाएंगे।
तदनरूप वर्तमान समय में आम जनता का मनोभाव भी यही हो गया है कि सामान्य स्थिति में हमें कुछ भी तो नहीं मिलता, इसीलिए चुनाव के वक्त जो कुछ भी मिलता है, उसे ले लिया जाए। चाहे वह कुछ भी क्यों ना हो। मगर हर वोटर को समझना होगा कि यह तो रिश्वत लेना हुआ।
…तो सोच लीजिए हम अवश्य ठगी का शिकार होंगे
अब समय है सही पार्टी और सही नेता चुनने का। इस देश की जनता राजनीति को समझना नहीं चाहती थी, और नेता भी चाहते थे कि लोग अंधेरे में रहें,अनजान रहें। आम जनता की सोच है कि नेता लोग ही सब कुछ तय करते हैं. नेताओं ने इसका फायदा उठाया। उस वक्त लोगों की समझ में नहीं आया कि गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस में फर्क कहां पर है ? वे समझ नहीं पाए थे कि नेताजी को उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष पद से क्यों हटाया गया। आज भी लोग अंधे रह जायं, अनजान रह जायं, तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। अखबार क्या कह रहा है, टीवी क्या दिखा रहा है, कौन कितने पैसे देगा? इसके आधार पर वोट देंगे, तो सोच लीजिए हम अवश्य ठगी का शिकार होंगे।
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नेता हाथ जोड़कर वोट मांगेंगे, लेकिन…
समाज में यह भी बात कही जाती है कि जो लंका जाता है, वही रावण बन जाता है। यह सही नहीं है. रामायण की कहानी के अनुसार राम,लक्ष्मण, सीता, हनुमान सभी लंका गए थे। मगर वे तो रावण नहीं बने। बल्कि रामायण की यही सीख है कि सीता का अपहरण नहीं होता, यदि वह रावण को पहचान पाती। रावण सन्यासी के भेष में आया. सीता ने लक्ष्मण की बात परवाह न कर लक्ष्मण रेखा पार की, तब सीता-हरण हुआ। आज भी चुनाव के दौरान सारे नेता हेलीकॉप्टर से आएंगे, गांव -गांव, शहर- शहर घूमेंगे। जनता के लिए आंसू बहाएंगे, एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार-कदाचार का आरोप लगाते हुए हाथ जोड़कर वोट मांगेंगे।
जनता को अभी लंका के राम रूपी छवि का निर्वाचन करते हुए रावण रूप को बहिष्कार करना है। प्रचार के तड़क भड़क से भ्रमित न होकर सामूहिक लोभ लालच के झांसे में नहीं आकर सही प्रत्याशी का निर्वाचन करना है।
जब तक चुनाव में जनता क्रांति के लिए तैयार नहीं हो जाती
इस तरह चुनाव के जरिए मौलिक समस्या का समाधान, भ्रष्टाचार पर अंकुश ,कालाबाजारी पर रोक, मजदूर-किसान तथा मध्यम वर्ग की ज्वलंत समस्याओं का समाधान तब तक संभव नहीं है, जब तक चुनाव में जनता क्रांति के लिए तैयार नहीं हो जाती। अतः प्रजातंत्र में चुनाव एक अच्छा कल्याणकारी स्वरूप है। लेकिन इसके दुरुपयोग तो इससे कहीं भयंकर और कष्टदायक है। आज प्रजातंत्र में चुनाव की प्रासंगिकता हर बार धुंधला और मटमैला हो जाने के कारण इससे अब किसी प्रकार के अच्छे परिणाम एवं सुखद भविष्य की कल्पना कठिनाई से की जा सकती है। जनता भी तो विवश और लाचार है वह किसका चुनाव करें और किसका ना करें। वह जिसे चुनती है वही गद्दार और शोषक बन जाता है। फिर भी हम चुनाव में भाग लेंगे और तब तक भाग लेते रहेंगे जब तक की जनता क्रांति के लिए तैयार नहीं हो जाती ।
ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.
लेखक- उज्वल कुमार मंडल
(सामाजिक कार्यकर्ता)
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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