संविधान के तिहतरवें एवं चौहतरवें संशोधन का बड़ा उद्देश्य अधिकार संपन्न स्थानीय निकायों की स्थापना का रहा है. पूरे देश में पंचायती राज और नगरीय निकायों की व्यवस्था में एकरूपता के अलावा हर पांच साल में चुनाव कराना भी एक महत्वपूर्ण लक्ष्य रहा है. देश के कई राज्यों में किसी न किसी कारण से चुनावों को टाल कर आम आदमी को सशक्त बनाने की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश स्थानीय स्तर पर देखने को मिल रही है. हर राजनीतिक दल और उसकी सरकारें इसमें शामिल हैं.
महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में निकाय चुनाव ओबीसी आरक्षण के कारण बाधित हुए. अन्य पिछड़ा वर्ग को निकाय चुनाव में आरक्षण दिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन आरक्षण के लिए वह जिन कसौटियों और जातियों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थितियों को परखना चाहता है,वह राजनीतिक दलों के लिए असुविधाजनक लगती है.
देश में हर साल 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस मनाया जाता है. वर्ष 1994 में इसी दिन पूरे देश में पंचायती राज कानून लागू किया गया था. संविधान का 73 वां संशोधन निर्वाचित पंचायतों को सशक्त बनाने का था. 74 वें संशोधन के जरिए नगरीय निकायों को सशक्त बनाया गया. संविधान संशोधन का बड़ा उद्देश्य लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करना भी है. लोकसभा और विधानसभा की तरह ही पंचायती राज और नगरीय निकायों के चुनाव हर पांच साल में कराए जाने की बाध्यता रखी गई है. अनुसूचित जाति, जनजाति और महिलाओं की भागीदारी को आरक्षण के जरिए सुनिश्चित किया गया. पंचायती राज व्यवस्था के प्रभावी होने से पहले तक पंचायतों पर ग्रामीण समाज के शक्तिशाली लोगों, जिन्हें जमीदार अथवा साहूकार कहा जाता है, का कब्जा था.
पंचायती राज संस्थाएं दरबान के रूप में काम करती
1978 में बनी दंत वाला समिति ने पुरानी प्रचलित व्यवस्था के बारे में लिखा था कि पंचायती राज संस्थाएं दरबान के रूप में काम करती हैं और ग्रामीण समुदायों के कमजोर वर्गों को मिलने वाले लाभ को रोकती हैं. 73 वें और 74 वें संशोधन के जरिए स्थानीय निकायों को वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार भी दिए. इसके चलते सांसद अथवा विधायक से भी ज्यादा अधिकार जिला स्तरीय पंचायत के अध्यक्ष को मिल गए. अधिकारों के ही चलते कई राज्यों ने गैर दलीय आधार पर चुनाव कराए जाने की व्यवस्था को लागू किया. इसकी बड़ी वजह दल के भीतर उभरने वाले असंतोष को रोकना भी रहा है. जबकि प्रत्यक्ष तौर पर दलील सामने आई कि दलीय आधार पर चुनाव होते हैं तो ग्रामीण सामाजिक ढांचे पर इसका विपरीत असर होगा.
जातिगत आरक्षण पर राजनीतिक दल रहते हैं एकमत
संविधान संशोधन में अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने का प्रावधान नहीं था. राज्यों में चुनाव में आरक्षण सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा महिलाओं को दिया गया. बाद के सालों में राजनीतिक दलों ने अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण दिए जाने की व्यवस्था कर दी. सामान्यत: जातिगत आरक्षण पर राजनीतिक दलों के बीच कोई मतभेद नहीं होता है. विरोध या समर्थन आरक्षण के प्रतिशत को लेकर सामने आता है. स्थानीय निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित पदों का देशव्यापी विवाद पहली बार सामने आया है.
रोस्टर प्रणाली को लेकर विवाद
मध्यप्रदेश के निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग को चौदह प्रतिशत आरक्षण पिछले चुनावों में दिया गया था. इस बार पंचायत चुनाव में रोस्टर प्रणाली को लेकर विवाद शुरू हुआ, जिसने अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण को भी लपेट लिया. महाराष्ट्र में भी आरक्षण के प्रतिशत को लेकर विवाद की स्थिति बनी. झारखंड के मामले में भी फैसला आरक्षण के खिलाफ आया. झारखंड में ओबीसी आरक्षण के बिना ही चुनाव कराए जा रहे हैं. इसके खिलाफ भी मामला सुप्रीम कोर्ट गया था लेकिन कोर्ट ने दखल देने से इंकार कर दिया था.
हिन्दी भाषी राज्यों में निर्णायक है ओबीसी राजनीति
अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण का मामला हिन्दी पट्टी के राज्यों में बड़ा राजनीतिक मुद्दा है. वर्ष 2019 में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश दोनों ने ही अन्य पिछड़ा को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का निर्णय लिया. दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी. लेकिन, लोकसभा चुनाव में इसका लाभ कांग्रेस को नहीं मिल पाया. आरक्षण की यह व्यवस्था सरकारी नौकरियों के लिए की गई.
बाद में इसका विस्तार स्थानीय निकाय के चुनाव तक कर दिया गया. मध्यप्रदेश में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का मामला कोर्ट में लंबित है. बढ़े हुए आरक्षण के अनुसार सरकारी भर्तियां भी नहीं हो रही हैं. कारण इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की पचास प्रतिशत की जो सीमा निर्धारित की है, आरक्षण उससे ज्यादा देने की कोशिश हो रही है.
आरक्षण की सीमा लागू होती है
निकाय चुनाव में ओबीसी को आरक्षण दिए जाने के मामले में भी आरक्षण की सीमा लागू होती है. सुप्रीम कोर्ट सिर्फ सामाजिक आर्थिक स्थिति के तथ्यात्मक आंकड़े मांग रहा है. लेकिन, राज्य और राजनीतिक दलों की सरकारें चुनावी लाभ के लिए कागजी आंकड़े पेश कर रहे हैं. ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश का है. यहां सरकार ने जल्दबाजी में एक आयोग का गठन किया.
वोटर लिस्ट के आधार 48 प्रतिशत जनसंख्या का अनुमान पेश किया. इसके साथ ही 37 प्रतिशत आरक्षण की मांग की गई. सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दो सप्ताह के भीतर स्थानीय निकाय के चुनाव की प्रक्रिया शुरू करने के लिए कहा है.
ओबीसी आरक्षण नामंजूर हो गया तो कांग्रेस-भाजपा एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे
अब जब ओबीसी आरक्षण नामंजूर हो गया तो कांग्रेस-भाजपा एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. राज्य कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरुण यादव कहते हैं कि भाजपा की मंशा आरक्षण को समाप्त करने की है. मध्यप्रदेश में पंचायत चुनाव की प्रक्रिया पिछले साल दिसंबर में शुरू हो गई थी. आरक्षण रोस्टर और परिसीमन का विवाद कोर्ट में पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट ने प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं किया. लेकिन, चुनाव परिणाम न जारी करने के आदेश दे दिया. सरकार ने चुनाव प्रक्रिया के बीच में एक अध्यादेश जारी परिसीमन के आदेश को ही पलट दिया. मजबूरन राज्य निर्वाचन आयोग ने चुनाव प्रक्रिया निरस्त कर दी.
वोटर लिस्ट वह नहीं रही जिसके आधार पर चुनाव कराया जा रहा
सरकार के अध्यादेश जारी किए जाने से पंचायतों के क्षेत्र और वोटर लिस्ट वह नहीं रही जिसके आधार पर चुनाव कराया जा रहा था. सरकार ने ओबीसी के आरक्षित पदों की अधिसूचना भी नए सिरे से जारी नहीं की. इसके बारे में निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिए थे. यही स्थिति महाराष्ट्र भी निर्मित हुई. ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के इच्छुक राज्यों को ट्रिपल टेस्ट में यह भी साबित करना है कि इस वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं. राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अन्य पिछड़ा वर्ग से ही हैं. सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय पर वे कहते हैं कि हम पुनरीक्षण याचिका दायर करने जा रहे हैं.
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