समझौते में अमेरिका की ओर से नेपाल में बिजली की अल्ट्रा हाई-वोल्टेज ट्रांसमिशन लाइन बनाने का ज़िक्र है. इसका इस्तेमाल कर नेपाल, भारत को बिजली बेच सकेगा. इसके साथ ही कुछ सड़क परियोजनाओं का भी विकास होना है. इस समझौते में भारत की मंज़ूरी भी ज़रूरी है.सरकार में शामिल नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी), एकीकृत समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां समझौते के मौजूदा स्वरूप को संसद से मंजूरी दिलाने के ख़िलाफ़ हैं. उनका कहना है कि समझौते में कई ऐसे प्रावधान हैं, जो राष्ट्रीय हित के ख़िलाफ़ हैं.
भारत-नेपाल को जोड़ने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट भी शामिल हैं.
अमरीका और नेपाल के इस समझौते को संसद का समर्थन ज़रूरी है, लेकिन राजनीतिक दलों और आम जनता के विरोध की वजह से इसका भविष्य अधर में लटका हुआ है.अमरीका और नेपाल के बीच 50 करोड़ डॉलर का समझौता 2017 में हुआ था. ‘मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन नेपाल (MCC-Nepal)’ के तहत अमेरिका यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के विकास के लिए 50 करोड़ डॉलर देने वाला है. इसके तहत, भारत-नेपाल को जोड़ने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट भी शामिल हैं.
यह समझौता चीन के असर को रोकने के लिए किया जा रहा है, जबकि नेपाल किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहता.
अमेरिकी अधिकारियों के बयानों से भी इस समझौते को लेकर भ्रम फैला. इन अधिकारियों का कहना था कि यह समझौता अमरीका की इंडो-पैसिफ़िक रणनीति के मुफ़ीद है. हालांकि बाद में उन्होंने इससे इनकार किया.इससे सरकार में शामिल कम्युनिस्ट पार्टियां भड़क गईं. उनका कहना है कि इसका मतलब यह समझौता चीन के असर को रोकने के लिए किया जा रहा है, जबकि नेपाल किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं जाना चाहता. वो सबसे अच्छे संबंध बना कर रहना चाहता है.
फणींद्र दहल कहते हैं, ”इस समझौते को लेकर कुछ दुष्प्रचार भी देखने को मिल रहा है. कहा जा रहा है कि अमेरिका इस मदद के बहाने नेपाल में अपने सैन्य अड्डे बना सकता है. यह चीन को रोकने की उसकी रणनीति है. इससे नेपाल की संप्रभुता को चोट पहुंचेगी. यही वजह है कि नेपाली जनता इसका विरोध कर रही है. विरोध प्रदर्शन कर रहे कुछ लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया है.”
राजनीतिक दलों का कहना है कि जब समझौता नेपाल अमेरिका के बीच हुआ है, तो इसमें भारत को क्यों बीच में लाया जा रहा है.
समझौते के विरोध को देखते हुए अमेरिका ने इसे रद्द करने की चेतावनी दी है. उसका कहना है कि अब वह और इंतज़ार नहीं कर सकता है. फ़रवरी तक समझौते को मंज़ूरी नहीं मिली तो वो 50 करोड़ डॉलर की इस सहायता को वापस ले लेगा.फणींद्र दहल बताते हैं कि जब ये समझौता हुआ तो अमेरिका ने कहा था कि इसमें भारत को भी भरोसे में लेना होगा क्योंकि बिजली ट्रांसमिशन लाइन नेपाल के गुटवल से गोरखपुर तक बिछेगी. लेकिन राजनीतिक दलों का कहना है कि जब समझौता नेपाल अमेरिका के बीच हुआ है, तो इसमें भारत को क्यों बीच में लाया जा रहा है.
नेपाली जनता का एक हिस्सा इसका विरोध कर रहा है. कुछ नेपाली बुद्धिजीवियों का कहना है कि ऐसा करने से नेपाल को अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के क्वाड समूह का समर्थक माना जाएगा. यह नेपाल की स्वतंत्र विदेश नीति के लिए ठीक नहीं है.
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