अपने एक ताजा विश्लेषण में अमेरिकी अर्थशास्त्री डेविड पी गोल्डमैन ने लिखा है कि 2008 के वित्तीय संकट के बाद से दूसरे देशों ने 18 ट्रिलियन डॉलर की रकम का कर्ज के रूप में अमेरिका में निवेश किया। ऐसा डॉलर के वर्चस्व की वजह से संभव हुआ। वित्तीय जगत में डॉलर की यह भूमिका अचानक खत्म हुई, तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिए उसका विनाशकारी असर होगा। अमेरिका के सहयोगी देशों की अर्थव्यवस्थाओं के लिए भी इसका वैसा ही परिणाम होगा।
वित्तीय जगत में डॉलर की यह भूमिका अचानक खत्म हुई, तो अमेरिका की अर्थव्यवस्था के लिए उसका विनाशकारी असर होगा।
अब मीडिया रिपोर्टों से यह साफ है कि डॉलर के बिना कारोबार चलाने की मुहिम का नेतृत्व फिलहाल रूस कर रहा है। इसकी तैयारी उसने कई वर्ष पहले शुरू की थी, लेकिन 2021 में इसमें काफी तेजी लाई गई। जनवरी 2021 की तुलना में इस साल जनवरी तक वह अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर का हिस्सा 21 प्रतिशत घटा चुका था। इसी अवधि में वह अपने भंडार में चीनी मुद्रा मुद्रा युवान का हिस्सा 13 से बढ़ा कर 17 प्रतिशत तक ले गया।
जनवरी 2021 की तुलना में इस साल जनवरी तक वह अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर का हिस्सा 21 प्रतिशत घटा चुका था।
अब कारोबार जगत में ये धारणा आम हो गई है कि यूक्रेन पर हमले के बाद रूस के धन को पश्चिमी देशों ने जिस तरह जब्त किया, उससे अमेरिकी मुद्रा डॉलर की साख को गहरा नुकसान पहुंचा है। मीडिया रिपोर्टों में अब ध्यान दिलाया जा रहा है कि अभी पांच साल पहले तक इक्के-दुक्के लोग ही यह कहते थे कि वित्तीय जगत में डॉलर का वर्चस्व घट रहा है। लेकिन अब गोल्डमैन सैक्श और क्रेडिट सुइसे जैसी एजेंसियों की रिपोर्ट में भी ये बात कही जाने लगी है। बल्कि अब इस पर चर्चा होने लगी है कि ऐसा होने का अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा।
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि अब डॉलर में अपना धन ना रखने का चलन तेज गति से आगे बढ़ सकता है। ऐसी चेतावनी पिछले महीने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी दी थी। उसने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि अभी डॉलर के वर्चस्व में परोक्ष रूप से क्षय हो रहा है। लेकिन यह उस स्थिति की पृष्ठभूमि है, जब ऐसा अधिक खुले रूप में होने लगेगा।
चीन का हिस्सा 15 फीसदी हो गया है। ऐसे में डॉलर का जारी वर्चस्व अमेरिका की आर्थिक ताकत के कारण नहीं, बल्कि अन्य वजहों से है।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि दुनिया में निर्यात के हिसाब से अमेरिका की ताकत पहले ही काफी घट चुकी है। अब इसमें उसका हिस्सा सिर्फ आठ प्रतिशत बचा है। जबकि चीन का हिस्सा 15 फीसदी हो गया है। ऐसे में डॉलर का जारी वर्चस्व अमेरिका की आर्थिक ताकत के कारण नहीं, बल्कि अन्य वजहों से है। हकीकत यह है कि पिछले 15 वर्षों में खुद अमेरिकी उपभोक्ता चीनी वस्तुओं पर अधिक से अधिक निर्भर होते गए हैँ। विशेषज्ञों के मुताबिक, इतिहास में उस देश की मुद्रा की ताकत का बढ़ना एक स्वाभाविक घटना रही है, जो अधिक निर्यात करने में सक्षम हो।
भारत और रूस के बीच रुपया-रुबल में कारोबार की फिर हो रही शुरुआत इस बात की मिसाल है।
अर्थशास्त्री गोल्डमैन ने वेबसाइट एशिया टाइम्स पर लिखे अपने विश्लेषण कहा है कि दुनिया उस मुकाम पर पहुंच गई है, जहां विभिन्न देशों का काम बिना डॉलर रखे चल सकता है। भारत और रूस के बीच रुपया-रुबल में कारोबार की फिर हो रही शुरुआत इस बात की मिसाल है। व्यापार के इस तरीके के तहत रूस को जो व्यापार मुनाफा होगा, उसका निवेश वह भारत के कॉरपोरेट बॉन्ड मार्केट में करेगा। इस बीच भारत से रूस को होने वाले निर्यात में 50 प्रतिशत वृद्धि की संभावना जताई जा रही है।
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