मानसिक रोगों में सबसे अधिक लोग शक की बीमारी से पीड़ित है। रांची के केंद्रीय मनश्चिकित्सा संस्थान में हर दिन ओपीडी में 400 के करीब मानसिक रोगी पहुंचते हैं। इनमें से 25 फीसदी से अधिक मतलब 100 के करीब मरीज इस लक्षण के पहुंचते हैं। मरीजों में ऐसा सिजोफ्रेनिया नामक बीमारी के कारण होता है। संस्थान के विशेषज्ञ मनोचिकित्सक डॉ. सुरेंद्र पलिवाल ने बताया कि सिजोफ्रेनिया बहुत बड़ी समस्या है। कुल आबादी के करीब एक फीसदी मरीजों में यह समस्या देखी जा रही है। ऐसे मरीज वास्तविकता से नाता खो देते हैं। ऐसे मरीज हमेशा शक से घिरे रहते हैं।
सोचने-समझने की क्षमता हो जाती है खत्म
मनोचिकित्सक डॉ. सुरेंद्र पलिवाल ने बताया कि ऐसे मरीज सोचने-समझने की क्षमता लगभग खो देते हैं। वे गुस्सैल हो जाते हैं। उनके कानों में हमेशा आवाज गूंजने जैसा महसूस होते रहता है। इस बीमारी में मरीजों का इलाज दो विधि से किया जाता है। एक तो एंटी साइकोटिक मेडिकेशन द्वारा और दूसरा उन्हें ईसीटी इलेक्ट्रो कंवल्सिव थेरेपी दी जाती है।
25 फीसदी मरीज नहीं हो पाते ठीक
डॉ. सुरेंद्र के अनुसार 25 फीसदी से अधिक मरीज इस बीमारी से पूरी तरह से ठीक नहीं हो पाते हैं। लक्षण मिलने पर मरीज जितनी जल्दी इलाज के लिए पहुंचते हैं, ठीक होने की उतनी अधिक संभावना होती है। कई मरीज तो ऐसे होते हैं जो पांच से दस साल बाद अस्पताल पहुंचते हैं। ऐसे में उनके डायग्नोसिस में बहुत अधिक परेशानी होती है। काउंसलिंग भी बहुत कम असर करता है। साथ ही बहुत अधिक ईसीटी देने से भी पूरी तरह से मरीज ठीक नहीं हो पाते।
ऐसे मरीजों के लक्षण
– अचानक समाज से दूरी बनाने लगना
– अकेले में रहकर अक्सर बुदबुदाते रहना
– अकेले में बिना किसी बात के हंसने लगना
– बिना वजह अचानक से उत्तेजित हो जाना
– अपनी साफ-सफाई का ख्याल नहीं रखना
– स्वभावगत गुस्सैल होना और मारपीट करना
– दो लोगों को बातचीत करते देख ध्यान लगाना
20 साल के बाद होती है ऐसी परेशानी
डॉ. सुरेंद्र पलिवाल के अनुसार, आम तौर पर ऐसी परेशानी बीस साल से अधिक उम्र के लोगों को ही होती है। 40 से पचास साल तक के उम्र के लोग सबसे अधिक प्रभावित हैं। इस बीमारी से हर उम्र के लोग परेशान हैं। ग्रामीण क्षेत्र के लोग शहरी के मुकाबले अधिक इलाज कराने पहुंचते हैं। डॉ. पलिवाल ने बताया कि इस बीमारी को लेकर लोगों में जागरूकता की बहुत अधिक जरूरत है।
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