झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले का डोभापानी गांव वर्षों से सामाजिक बदलाव का इतिहास रच रहा है। यहां किसी बेटी की शादी उसके माता-पिता पर आर्थिक बोझ नहीं बनती। पूरा गांव बेटी के माता-पिता की भूमिका निभाता है। शादी गांव के किसी भी घर में हो, खर्च की जिम्मेदारी पूरा गांव मिलकर उठाता है। इस सामूहिक पहल से बेटियों के मां-बाप पर खर्च का बोझ न के बराबर होता है। डोभापानी की इस सामूहिक जिम्मेदारी ने आसपास के गांवों को भी प्रेरित करना शुरू कर दिया है। पड़ोसी गांवों के लोग भी इस परंपरा को अपना रहे हैं।
युवाओं का सुझाव रंग लाया
इस गांव में भी पहले बेटियों की शादी करना सिर्फ माता-पिता की ही जिम्मेदारी होती थी। इस कारण खेती-किसानी पर निर्भर माता-पिता शादी समारोह का भव्य आयोजन करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। संताल आदिवासी बहुल इस गांव में पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था के तहत हर हफ्ते माझी-परगना (पंचों) की बैठक सामाजिक मुद्दों पर होती थी। इस बीच यह मुद्दा आया कि शादी के बड़े खर्च माता-पिता के लिए बोझ बन रहे हैं।
…तो बदल सकती है तस्वीर
इस बीच गांव के युवाओं ने सुझाव दिया कि शादियों में अगर पूरा गांव एक-दूसरे का सहयोग करे तो तस्वीर बदल सकती है। इस पर सभी सहमत हुए। तय हुआ कि शादी में माझी-मोड़े (पंचों) की जिम्मेदारी होगी कि बेटियों के माता-पिता को शादी के लिए चावल-दाल से लेकर बारातियों को खिलाने के लिए मछली-मुर्गा की व्यवस्था करें। इसके लिए गांव के हर घर से चावल, दाल, सब्जी व एक निर्धारित सहयोग राशि जुटाई जाएगी और जिस घर में बेटी की शादी होगी, उस परिवार को दे दी जाएगी।
हर घर करता है आर्थिक सहयोग
जमशेदपुर शहर से करीब 12 किमी पूर्व की ओर एनएच-33 किनारे स्थित डोभापानी गांव के सुरेश हांसदा बताते हैं कि हर घर से 200 रुपये के अलावा पांच पोयला (करीब पांच किलो) चावल लिया जाता है। पंच अपने फंड से 25 किलो मुर्गा व दस किलो मछली उपलब्ध कराते हैं। करीब 40 घरों से करीब दो क्विंटल चावल उस परिवार को मिल जाता है। यहीं नहीं, पत्तल तक घर-घर से जुटाकर भेजा जाता है, इससे शादी का खर्च काफी हल्का हो जाता है।
अनूठी परंपरा से सामाजिकता का संदेश
माझी परगना महाल के वरिष्ठ पदाधिकारी सह तालसा ग्राम प्रधान दुर्गा चरण मुर्मू कहते हैं कि शादी-ब्याह में संताल आदिवासियों में परस्पर सहयोग की भावना पुरानी रही है। अब डोभापानी जैसे कई गांवों में इसे लागू किया जा रहा है। इससे सामाजिक संदेश भी मिल रहा है। वैसे भी संताल समाज में बेटियों का दर्जा विशेष रहा है। इस तरह के संगठित प्रयास को सभी गांवों में आत्मसात किया जाना चाहिए।
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