देश में संगठित मजदूरों की तुलना में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या काफी ज्यादा
मजदूर दिवस सारी दुनिया के श्रमजीवियों का, अपने अधिकारों और सम्मान की मांग करते हुए शहीद हो गए साथियों की स्मृति से जुड़ा हुआ दिन है। ऐसे समूह जो श्रम को बेचकर ही अपनी जीविका चला पाते हैं, दुनिया भर के ऐसे लोग संगठित हों और अपनी दशा में सुधार के सामूहिक और संगठित प्रयास करें, मजदूर दिवस सारे मजदूरों को इस संकल्प की याद भी दिलाता है। यद्यपि अपने देश में संगठित अर्थात यूनियनाइज्ड मजदूरों की तुलना में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या काफी ज्यादा है, तथापि मैं अगली पंक्तियों में संगठित क्षेत्र के श्रमिकों की चर्चा करूंगा। जहां काम करने का लगभग चार दशकों का मेरा अपना अनुभव है।
एटक एक प्रकार से वामपंथियों का श्रमिक संगठन बन गई
देखा जाए तो आजादी के पहले, वर्ष 1919 में देश में एकमात्र लेबर यूनियन एटक (AITUC) थी और अधिकांश यूनियनों को उसी संस्था की मान्यता मिली हुई थी। सिर्फ अहमदाबाद यूनियन उससे अलग थी। वर्ष 1929 में जब सुभाष बाबू लेबर एसोसिएशन (अब टाटा वर्कर्स यूनियन) के अध्यक्ष थे, उसी समय वह एटक के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुने गए थे। लगभग उसी समय से एटक संस्था में मतभेद गहराने लगे और उसके टूटने का आधार तय होने लगा। आगे आजादी की लड़ाई में जब कांग्रेस तथा अन्य दूसरे दलों के नेता जेल में थे, उस समय कम्युनिस्ट पार्टी ने एटक (AITUC) पर अपना कब्जा जमा लिया। एटक एक प्रकार से वामपंथियों का श्रमिक संगठन बन गई।
1948 ईस्वी में एक अन्य श्रमिक संगठन इंटक (INTUC) का गठन हुआ
जब ये नेतागण जेल से बाहर आए, तब कुछ लोगों का विचार था कि फिर से एटक पर कब्जा कर लिया जाए, लेकिन बारी साहब ने सुझाव दिया कि उसमें शक्ति बर्बाद करने से क्या फायदा ? उससे ज्यादा अच्छा यह होगा कि एक अलग संस्था बना ली जाए। बारी साहब के देहांत के बाद यानी आजादी के बाद, सन 1948 ईस्वी में एक अन्य श्रमिक संगठन इंटक (INTUC) का गठन हुआ। आज देश में इंटक सबसे बड़ा श्रमिक संगठन है और इसके पास सबसे अधिक सदस्य संख्या भी है। बाद में अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपना-अपना अलग श्रमिक संगठन खड़ा किया ।
इंटक का स्वतंत्र अस्तित्व है। यह कांग्रेस पार्टी का संगठन नहीं है
इंटक को आरंभ से ही कांग्रेस के बड़े नेताओं का सहयोग मिलता रहा था और इसके अनेक सिद्धांत कांग्रेस पार्टी के सिद्धांतों से मिलते जुलते थे। इसलिए लोगों को यह भ्रम हुआ कि इंटक कांग्रेस पार्टी का ही कोई संगठन है, जबकि सच्चाई यह नहीं है। इंटक का स्वतंत्र अस्तित्व है। यह कांग्रेस पार्टी का संगठन नहीं है। मैं समझता हूं जैसा कि पहले सारे देश में एक ही लेबर यूनियन था, आगे चलकर भी एक ही रहता तो श्रमिकों या कर्मचारियों की शक्ति का महत्व देश में काफी अधिक होता। लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां अपना अलग-अलग श्रमिक संगठन चलाती हैं, इसलिए श्रमिकों की कुल शक्ति छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित हो गई है। यही कारण है कि आज राष्ट्रीय स्तर पर श्रमिकों या कर्मचारियों की स्थिति अच्छी नहीं है।
ट्रेड यूनियन का बिखराव मजदूरों की बर्बादी का कारण बना
दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि अपने-अपने क्षुद्र एजेंडे से चिपकी, विभाजित मजदूर यूनियनों को वर्तमान दौर में एक साथ लाना भी शायद संभव नहीं है । इसलिए अपने देश में दिनोंदिन श्रमिक शक्तियों का पतन हो रहा है और श्रम अधिकारों की अवहेलना हो रही है। आज हर यूनियन अपने-अपने तरीके से शक्ति प्रदर्शन करती है, किंतु उन्हें कुछ खास सफलता नहीं मिल पाती है। सोचिए अगर पूरे देश में श्रमिकों तथा कर्मचारियों की आवाज एक साथ उठने लगे, तो उनकी हर उचित मांग को मानने के लिए कॉर्पोरेट या सरकार तुरंत बाध्य होगी या नहीं ?
मैं समझता हूं जिस प्रकार से आजादी के बाद देश का बंटवारा हो गया, केंद्रीय मजदूर यूनियनों का भी बंटवारा हो गया। देश के बंटवारे ने देश को बर्बाद किया और ट्रेड यूनियन का बिखराव मजदूरों की बर्बादी का कारण बना.
देश में मजदूरों की एक प्रमुख समस्या रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पेंशन की है
आजकल देश में मजदूरों की एक प्रमुख समस्या रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पेंशन की है। मीडिया में भी फिलहाल यह मुद्दा छाया हुआ है। दरअसल पेंशन वृद्ध व्यक्ति को आर्थिक के साथ-साथ पारिवारिक और सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता है। वर्तमान दौर में यह बहुत बड़ी जरूरत बन चुका है। लेकिन पुरानी सरकारों के द्वारा इकोनामिक रिफॉर्म के तहत ओल्ड पेंशन स्कीम को हटा कर उसे नए पेंशन स्कीम में तब्दील कर दिया गया। यह एक प्रतिगामी और मजदूर वर्ग के हितों को गंभीर चोट पहुंचाने वाला फैसला था। इससे मजदूर वर्ग में काफी असंतोष देखा गया और इसे लागू करवाने वाली तत्कालीन केंद्र सरकार भी वापस सत्ता में लौट नहीं पाई।
यूनियनों के बिखराव के चलते ही इस समस्या का कोई हल नहीं निकल पा रहा है
वर्तमान समय में अनेक सरकारों ने राज्यों में ओल्ड पेंशन स्कीम को बहाल कर दिया है। लेकिन आज भी अधिकांश राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों और केंद्र में न्यू पेंशन स्कीम लागू है जिसकी वजह से श्रमिकों और कर्मचारियों के मन में काफी असंतोष है, लेकिन ट्रेड यूनियनों के बिखराव के चलते ही इस समस्या का कोई हल नहीं निकल पा रहा है। वर्तमान में केंद्र सरकार जिस पार्टी की है उसका भी अपना एक मजदूर संगठन है जो इसके विरोध में कुछ कहती नहीं। दूसरी तरफ, अन्य विपक्षी पार्टियां समय-समय पर होने वाले चुनाव के समय अपने अपने घोषणा पत्र में पेंशन या मजदूर हित के अन्य बिंदु शामिल कर भूल जाया करती है।
यही बातें पिछले 50 – 60 वर्षों से चली आ रही हैं जिसकी वजह से धीरे-धीरे पूरे देश के श्रमिकों में असंतोष की स्थिति उत्पन्न हो गई है और उनको दिन-ब-दिन हानि ही होती चली जा रही है।
तीव्र विकास में श्रम शक्ति की अहम भूमिका
देश के समुचित एवं तीव्र विकास में श्रम शक्ति की अहम भूमिका होती है। ट्रेड यूनियन के कमजोर होने पर श्रम शक्ति दिशाहीन होती जाती है। दिशाहीन श्रम शक्ति कभी भी देश हित में नहीं है, इसलिए ट्रेड यूनियन का कमजोर होना भी देश हित में नहीं है। मगर हम देखते हैं कि ट्रेड यूनियन एक आंदोलन के रूप में कुछ दशक पहले तक राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में अपना स्थान रखता था, वह अब बिल्कुल निष्प्रभावी हो गया है। इसके कारण सरकार अथवा कॉरपोरेट के द्वारा पहले से ही दी जा रही सुविधाओं में भी कटौती आरंभ हो गई है। अब पेंशन का मामला ही लें, जिस पर आजकल खूब चर्चा हो रही है।
हम सब जानते हैं की श्रमिक पेंशन स्कीम 95 eps-95 देश के छोटे बड़े सभी संस्थानों में लागू हुआ करता था। इसके कुछ प्रावधानों को लेकर श्रमिकों में बहुत असंतोष देखा गया। उन्होंने न्यायालय के माध्यम से कुछ राहत मांगनी चाही। लेकिन अब तक अस्पष्टता की स्थिति बनी हुई है
आजादी के दौर में भारतीयों की औसत आयु कम थी
आजादी के दौर में भारतीयों की औसत आयु कम थी। धीरे-धीरे जीवन स्थितियों तथा चिकित्सा सुविधाओं में बढ़ोतरी होने से अब भारतीय लोगों का जीवनकाल बढ़ गया है। 60 वर्ष की आयु में रिटायरमेंट की तिथि तो निश्चित है, लेकिन उसके बाद श्रमिक आगे कितने दिनों तक जीवित रहेगा और रिटायरमेंट के बाद जब उसे आर्थिक सहारा नहीं मिलेगा तो उसकी जिंदगी और दिनचर्या कैसे चलेगी, यह सोचना किसका काम है ? इसी भावी जीवन की तकलीफों को पेंशन कम कर देता है। भविष्य की आर्थिक चिंताओं से मुक्त होकर आजीवन श्रम कार्यों से जुड़ा हुआ व्यक्ति नई सृजनात्मक ऊर्जा के साथ सामाजिक क्रियाकलापों में लग जाता है।
60 वर्ष की उम्र तक श्रम कर चुके व्यक्ति को उसके शेष जीवन पर सहारा देना राज्य का ही कर्तव्य
60 वर्ष की उम्र तक श्रम कर चुके व्यक्ति को उसके शेष जीवन पर सहारा देना भी राज्य का ही कर्तव्य है, जिसे पेंशन के द्वारा वह बखूबी निभा सकता है। मगर दुर्भाग्य से अब पेंशन सरकारों के लिए एक अतिरिक्त आर्थिक बोझ बन गया है।देश में सरकार की अवधारणा के साथ लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा जुड़ी हुई है। लेकिन निहित स्वार्थों और वोट की राजनीति के चलते हमारी सरकारें अनाप-शनाप अनुदानों के ऊपर तो ढेर सारा पैसा लूटा देती हैं, लेकिन एक श्रमिक को पेंशन देने के नाम पर आर्थिक नुकसान का रोना रोने लगती हैं।
पेंशन आखिर किसे मिलना चाहिए ?
यह एक ऐसा मामला है जिसे ट्रेड यूनियन, कॉर्पोरेट और सरकार के बीच आपसी बातचीत के द्वारा आसानी से सुलझाया जा सकता है। मेरे विचार से देश में सभी कामगारों को एक समान नीति के अनुरूप पेंशन की सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए। आखिर इन कामगारों में से अधिकतर ने जीवन भर सरकार को आयकर तो दिया ही है न। अब यदि पेंशन के रूप में उन्हें कुछ रकम मिलेगी, तो उसे भी देश की आर्थिक क्रियाओं में ही इस्तेमाल किया जाएगा। दूसरी तरफ जन सेवकों को न केवल पेंशन दिया जाता है, बल्कि उनके पेंशन की रकम हर कुछ-कुछ साल के बाद बढ़ती जाती है. मेरा सवाल है कि पेंशन आखिर किसे मिलना चाहिए ? आर्थिक क्रियाओं में लगे श्रमिकों और कामगारों को अथवा आम जनता के खर्चों पर पलते जन सेवकों को ?
अभी भारत को उभर रही ग्लोबल चुनौतियों पर विचार करना चाहिए
वैश्विक परिदृश्य के वर्तमान की तरफ नजर डालें तो अभी भारत को उभर रही ग्लोबल चुनौतियों पर विचार करना चाहिए। हम अब गरीब देश का सर्टिफिकेट लेकर नहीं घूम सकते। आने वाले समय में हमारी अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर की होगी। फिर हम और आगे बढ़ेंगे। तो देश को आर्थिक रूप से लगातार आगे बढ़ाने और इसे ग्लोबल इकोनॉमिकल पावर बनाने का काम इन श्रमिकों के श्रम से ही होने जा रहा है। तब हमारा समाज और हमारी सरकारें हमारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं?
हमें इंग्लैंड, जर्मनी ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जापान जैसे दुनिया के विकसित देशों में श्रमिकों को मिल रही सुविधाओं के बारे में भी जानना चाहिए। जब हम आने वाले समय में उनकी ही कतार में खड़े होंगे तो उनके जैसी सुविधाओं की मांग क्या आज के ट्रेड यूनियन आंदोलन को नहीं करनी चाहिए ? क्या हमारी ट्रेड यूनियनें ऐसी मांग कर रही हैं ? कहीं सुना है आपने ?
अब मजदूरों को उठ खड़ा होना होगा
लगातार विकास के मार्ग पर चलते रहने के कारण भारत का सदियों पुराना सामाजिक ढांचा अब बदल गया है। पहले पूरा परिवार एक ही घर में, एक ही गांव में रहता था। आजकल पिता किसी और शहर में, तो बच्चे किसी और शहर में काम करते हैं, रहते हैं। स्वाभाविक है उनके खर्च अलग-अलग होंगे और पहले से अधिक भी होंगे। सरकार और मजदूर यूनियनों को साथ मिल बैठकर यह विचार करना चाहिए कि जब आज के श्रमिक सेवा मुक्त होकर अपने-अपने घर में अकेले बैठे होंगे तो अपना जीवन कैसे बिताएंगे और उसमें कितना खर्च आएगा ? इस दिशा में मजदूर संगठन के नेता सोच ही नहीं रहे। न सरकार कोई पहल कर रही है। अब मजदूरों को उठ खड़ा होना होगा कि वे अपने संगठन के नेताओं को बाध्य करें कि इन समस्याओं पर कोई सकारात्मक पहल की जाए।
श्रमिकों का हक मारकर अपना देश ग्लोबल पावर नहीं बन सकता
यह बात स्पष्ट समझ ली जानी चाहिए कि देश की जनता, विशेषकर श्रमिकों का हक मारकर अपना देश ग्लोबल पावर नहीं बन सकता। इस संबंध में एक और बात ध्यान देने की है कि करोड़ों की संख्या में श्रम शक्ति होने के बावजूद संसद भवन और कानून बनाने वाली दूसरी संस्थाओं में मजदूरों और उनके संगठनों के नेताओं का प्रतिनिधित्व बहुत, बहुत कम है। देश में मजदूर संगठनों में बिखराव और राजनीतिक नीति निर्माण संस्थाओं में उनकी शून्य प्रतिभागिता एक बड़ी वजह है कि उन के जीवन स्थितियों में सुधार का कोई प्रयत्न प्रारंभ ही नहीं होता।
मजदूर हितेषी बने हुए कुछ बदनाम लोग मजदूरों के सामूहिक हित का गला घोटते रहते हैं
चाहे सरकार हो अथवा कॉरपोरेट, हर नियोक्ता यह चाहता है कि उसके संस्थान में उसके पॉकेट की यूनियन हो। इसके लिए वह छद्म नेताओं की नस्ल तैयार करता है। यह बीमारी केवल जमशेदपुर में नहीं, सारे देश में लग चुकी है। यूनियन के चुनाव समय पर होते नहीं, जब कभी होते हैं तो उनमें जमकर धांधली की जाती है। श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं। शिकायत करने पर सुनवाई नहीं होती और बेचारा मजदूर वोट देकर स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस करता है। मजदूर हितेषी बने हुए कुछ बदनाम लोग भ्रष्टाचार का रोल मॉडल बन कर मजदूरों के सामूहिक हित का गला घोटते रहते हैं और इससे नियोक्ता संस्थाओं को बहुत खुशी और लाभ प्राप्त होता है।
राष्ट्रीय स्तर की कोई नियामक संस्था क्यों नहीं है ?
क्या यह ग्लोबल पावर बनने की राह में आगे बढ़ते देश के लिए उचित है कि उसकी श्रम शक्ति का नेतृत्व दोयम दर्जे के भ्रष्टाचारी लोग करें। जब अपने यहां मोबाइल सेवाओं और बैंकिंग सेवाओं तक के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की नियामक संस्था है तो देशभर के मजदूर संगठनों के क्रियाकलाप देखने और उनकी शिकायतें सुनने के लिए राष्ट्रीय स्तर की कोई नियामक संस्था क्यों नहीं है ?
क्या हमारी सरकारें देश की श्रमिक शक्ति से डरती हैं ?
मेरा स्पष्ट मानना है कि ऐसी कठपुतली यूनियन से बेहतर है कि कोई ट्रेड यूनियन ही न हो, क्योंकि यह पॉकेट यूनियनें मजदूरों के साथ-साथ समाज और देश का भी अहित करती हैं। मेरा सवाल यह है कि देश का अहित करने वाले आतंकवादियों से लड़ने के लिए सेना है, पुलिस है। तो ऐसे कुत्सित मानसिकता वाले लोगों से निपटने के लिए कोई उपाय क्यों नहीं किया गया है ? क्या हमारी सरकारें देश की श्रमिक शक्ति से डरती हैं और इसलिए उन्हें विभाजित और मुगालते में रखना चाहती हैं ? धर्म के नाम पर, जाति-संप्रदाय के नाम पर, भाषा और प्रांत के नाम पर श्रमिकों का विभाजन किसी भी रूप में देश हित में नहीं है।
वर्तमान श्रमिक असंतोष धीरे-धीरे अपने ऊंचाई की ओर बढ़ रहा है
इसलिए मेरा सुझाव यह है कि सारे श्रमिक संगठनों को एक करके, एक संयुक्त, राष्ट्रीय श्रमिक संगठन का निर्माण किया जाना चाहिए, जैसा देश की आजादी से पहले था और देश के कानून बनाने वाली संस्थाओं में श्रमिक संगठन के नेताओं को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। न्यूनतम वेतन, काम के घंटे, पेशेवर सुविधाएं तथा सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन – ऐसे मूलभूत सवाल हैं जिनसे कॉरपोरेट्स अथवा सरकारें मुंह नहीं मोड़ सकती। वर्तमान श्रमिक असंतोष धीरे-धीरे अपने ऊंचाई की ओर बढ़ रहा है। जरा सोचिए यदि समय रहते मजदूर हित के फैसले लेने शुरू नहीं किए गए तो यह असंतोष हमें किस दिशा की ओर ले कर जाएगा ?
….ग्लोबल पावर के रूप में हमारी स्वीकार्यता अधिक बढ़ेगी
चुनावी राजनीति में सत्ता प्राप्त करने के अनेक तरीके होते हैं। लोकलुभावन घोषणाएं करते हुए आम जनता को मुफ्त में सामान और सुविधाएं बांट कर भी उनका ध्यान और वोट अपनी ओर आकृष्ट किया जाता है, लेकिन यह प्रक्रिया देश को आर्थिक रूप से खोखला करती जा रही है। इसके बजाय यदि देश के श्रमबल को समुन्नत और अधिकार संपन्न बनाने की कार्यवाही शुरू की जाएगी तो इससे समाज, श्रमिक और देश का अधिक लाभ होगा, हम एक प्रगतिशील लोकतंत्र की तरह सारे विश्व में सम्मानित माने जाएंगे, ग्लोबल पावर के रूप में हमारी स्वीकार्यता अधिक बढ़ेगी, पर सरकारें ऐसा करेंगी तब न।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
मुसाबनी: रोजगार छीनने से सिसक रहे मजदूर, टूट रहे सपने आखिर कैसे मनाएं मई दिवस
लेखक
पी० एन० सिंह
पूर्व अध्यक्ष, टाटा वर्कर्स यूनियन
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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