पहले कविता की मुख्य धारा से गीत को बहिष्कृत किया गया और अब वह मंचों से भी बहिष्कृत सी हो चुकी है. वहां केवल नकली वीरोचित मुक्तकों और फूहड़ हास्य रचनाओं का बोलबाता है. जो कविता के शुद्धीकरण का दावा करते हैं वे खुद सरस्वती के मुंह पर कविता के नाम पर कालिख पोत रहे हैं.आजीवन गीतों से प्रेम की वर्षा करने वाले कवि गोपालदास नीरज का आज जन्मदिन है. आज से कोई चार वरस पहले जब नीरज का महाप्रयाण हुआ था तो कवि सम्मेलनों का मंच जैसे सूना हो गया. मंचों से जैसे गीत की विदाई हो गई.
क्या कोई दिनकर, शिवमंगल सिंह सुमन, गोपालदास नीरज, रमानाथ अवस्थी, भारत भूषण, किशन सरोज, रमेश रंजक और रामावतार त्यागी जैसा कवि है जो अपने समृद्ध कविता संसार से आधी रात के बाद सुबह तक बांधे रख सके. गोपालदास नीरज अपने अंतिम दिनों में इस बात से काफी क्षुब्ध रहते थे कि आज के कवियों को आखिर क्या हो गया है. पटना में एक मीडिया संचालित कवि सम्मेलन में काव्यपाठ के बीचोबीच नीरज जी ने पांच मिनट में अंग्रेजी में फटकारते हुए कवियों से मर्यादा में रहने की अपील की थी. पर आज वह मर्यादा तार-तार हो रही है. आज नीरज जैसे कवि के जन्मदिन पर ये बातें याद आ रही हैं तो इसका एक वाजिब अर्थ है.
कविता का समाज बनाने की बजाय हमने अपनी कविता के अनुकूल ही समाज बनाना शुरु कर दिया और कह दिया कि जनता तो यही चाहती है.आज देखते-देखते सारा कुछ हास्य और नकली वीर रस के काव्य की भेंट चढ़ गया है. लिहाजा न आज कविता रही, न कविता के वे गौरवशाली मंच जहां रात में होने वाले कवि सम्मेलनों को सुनने प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे आलोचक संपादक भी जाया करते थे.पहली बार उनके गीतों में जीवन, प्रेम, मृत्यु, अवसान, अस्तित्व और मनुष्य की सांसारिक अर्थवत्ता को बड़ी ही मार्मिकता से उठाया गया. नीरज ने निज के अभावों और पीड़ा को भी गान में बदल दिया था.
आज मंचों पर हंसने-हंसाने के सारे नुस्खे मौजूद हैं पर गीतों में प्राणतत्व भरने वाले नीरज जैसे कवि नहीं रहे. वह आलाप खो गया है जिसके लिए नीरज जाने जाते थे. प्राणों और सांसों में बस जाने वाले गीतों के रचयिता गोपालदास नीरज का न होना हिंदी गीत की एक बड़ी परंपरा का अवसान है. गोपाल सिंह नेपाली, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर के बाद वे हिंदी पट्टी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि थे जिन्हें जितने चाव से पढ़ा और गुनगुनाया जाता था, उतने ही चाव से सुना जाता था.
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