तिरुलडीह गोलीकांड की 40वीं वर्षगांठ
तिरुलडीह गोलीकांड के शहीदों के परिजनों को चार दशकों के बाद भी न्याय नहीं मिल पाया है. यह कैसी व्यवस्था है ? यह वाकया साल 1982 का है. अक्तूबर माह की 21 तारीख़. ईचागढ़ क्षेत्र को अकाल पीड़ित घोषित करने एवं चांडिल बांध के विस्थापितों के मुआवज़े की मांगों को लेकर तिरुलडीह स्थित ईचागढ़ प्रखंड कार्यालय (तत्कालीन) के समक्ष धरना-प्रदर्शन चल रहा था. सैकड़ों छात्र और युवा जुटे थे क्रांतिकारी छात्र-युवा मोर्चा के बैनर तले. आन्दोलनकारी अपनी मांगों पर अडिग थे. इसी बीच अधिकारी का फरमान जारी हुआ फायरिंग का. तैनात पुलिस बल ने अधिकारी के आदेश का पालन करते हुए बंदूकें चला दी. और दो युवकों अजीत महतो और धनंजय महतो को गोलियां लगी और उनके जीवन का दीया सदा के लिए बुझ गया.
बीते चालीस सालों में शहीद परिवारों की उम्मीदें धूमिल होती चली गईं
अजीत महतो चांडिल प्रखंड अंतर्गत खूंटी पंचायत के कुरली गांव के रहने वाले थे. अपने बड़े भाई अघनू महतो और उनके परिवार का एक अहम् हिस्सा थे. शादी नहीं हुई थी. पढ़ाई कर रहे थे. धनंजय महतो ईचागढ़ प्रखंड अंतर्गत आदरडीह गांव के रहने वाले थे. शादी-शुदा थे. छोड़ गए छोटा सा बच्चा और उनकी पत्नी. आज उनका बेटा चालीस की उम्र पार कर गया है, लेकिन अपने पिता को न्याय मिलने का बस इंतज़ार करता ही रह गया. शहीद धंनजय महतो की पत्नी या बेटे उपेन महतो को अनुकम्पा में नौकरी दिए जाने की मांग लगातार उठी. नेताओं से आश्वासन भी मिले, लेकिन ढाक के वही तीन पात. मिला कुछ नहीं, आश्वासन के सिवा.
स्थानीय नेताओं के अलावे कई दिग्गजों ने भी मोर्चा खोला था
हालाँकि उस दौर में तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा थे. उन दिनों इस पुसिस की बर्बरता के खिलाफ़ कई स्थानीय नेताओं ने मोर्चा खोला था. निर्मल महतो के नेतृत्व में ज़ोरदार आन्दोलन किया गया. चांडिल में एनएच जाम किया गया. निर्मल महतो समेत तमाम स्थानीय युवा कार्यकर्ताओं और नेताओं ने आन्दोलन किया. क्रांतिकारी छात्र युवा मोर्चा के हिकिम महतो की अगुवाई में तिरुलडीह प्रखंड कार्यालय का धरना-प्रदर्शन था, जिसमें अजीत और धनंजय शहीद हुए थे. बाद में आन्दोलन में क्षेत्र के दीनबंधु महतो, सुरेश खेतान, गुरुचरण महतो आदि जुड़े, फिर जॉर्ज फर्नांडीज़, कर्पूरी ठाकुर, शिबू सोरेन, रामविलास पासवान सरीखे दिग्गज नेता भी ईचागढ़ प्रखंड कार्यालय में आए, जांच कमिटी भी बनी, लेकिन जांच रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई. क्या हुआ ? खोदा पहाड़,निकली….!
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ऐसा क्यों हुआ था, कैसे हुआ था ?
अब सवाल यह हैं कि उस वक़्त ऐसा क्यों हुआ था ? ऐसा कैसे हुआ था ? इन सवालों का संतोषजनक उत्तर कभी नहीं मिला. क्या एकबारगी ऐसे गोली चलाने का आदेश कोई अधिकारी दे सकता है ? क्या आन्दोलनकारी इतने उग्र हो गए थे, कि गोली चलाने के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं बचा था ? क्या चेतावनी स्वरुप पहले हवा में फ़ायर नहीं किए जा सकते थे ? क्या टियर गैस का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था ? इतने वर्षों में सख्ती से संभवतः ये सवाल प्रशासन से पूछे ही नहीं गए या फिर प्रशासन ने जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा होगा !
श्रद्धांजलि दिए और हो गई कर्तव्य की इतिश्री !
वक़्त गुजरने के साथ-साथ लोग शहीदों को भूलते चले गए. बस 21 अक्तूबर के दिन उनको याद किया जाता है, तिरुलडीह शहीद स्थल पर लोग जुटते हैं, उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं और बस अपने कर्तव्य की हो गई इतिश्री ! शहीद अजीत-धनंजय महतो की शहादत को कुछेक राजनीतिक पार्टी के लोगों स्वार्थ-सिद्धि का ज़रिया ही बना लिया है. इसे मुद्दा बनाकर अपना उल्लू सीधा करने की कोशिशें की जा रही हैं. क्या उचित है और क्या अनुचित, यह विषय तो काफी पीछे छुट गया है, लेकिन आज यह कहना मुझे ज़रूरी लग रहा है कि सियासतदानों से कोई उम्मीद ही नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि वे सिर्फ अपने फायदे के लिए ही आपका इस्तेमाल करते हैं.
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शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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