सोहराय, जिसे बांदना पर्व भी कहा जाता है, मनुष्यों के प्रकृति और घरेलू पशुओं के बीच आपसी प्रेम और श्रद्धा को दर्शाता है. गांवों में किसान बसते हैं और वे पारंपरिक हर्षोल्लास और आस्था के साथ मनाते हैं यह परब. इस पर्व में घर के पालतू पशुओं, जैसे गाय, बैल, भैंस, काड़ा आदि की भी पूजा कर उनका आभार माना जाता है.
बांदना पर्व में झारखंड के हर गांव गुलजार हो जाते हैं. पशुधन के साथ हल-जुआल जैसे कृषि उपकरणों की भी विधिवत् पूजा की जाती है. इस लोक पर्व से गांव की सोंधी माटी की महक आती है.
धान काटने के बाद खलिहान में सुरक्षित रखने के बाद मनाए जाने वाले इस पर्व के दौरान पशुधन से किसी भी तरह का कोई काम नहीं लिया जाता है और न ही कृषि यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। इस दौरान इनकी विशेष देखभाल और सेवा की जाती है. इसके अलावे उनका सत्कार भी करते हैं किसान.
यों तो अमावस के एक दिन या तीन दिन पहले से परब की शुरुआत हो जाती है. घर के गाय-बैलों के सींग पर सरसों का तेल दिया जाता है. इसे शुभ माना जाता है. कहते हैं, इससे पशुधन की थकान मिटती है और वे प्रसन्न होते हैं. फिर उनका श्रृंगार किया जाता है.
पहले दिन कांची दीया और धेनुगान की परंपरा
अमावस के दिन से ही यह परब औपचारिक रूप से शुरू हो जाता है. दीपावली इसी दिन मनाई जाते है. शाम को हर घर के द्वार पर पूरे विधान से कांची दीया जलाया जाता है, जिसके ऊपर बछड़े को चलाया जाता है. रात को चरवाहे समेत ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ निकल पड़ते हैं गांव में धेनुगान करने. इस दौरान भगवती स्वरूप गायों और बैलों को जगाया जाता है. घर मालिक बड़े प्रेम से उनका स्वागत करते हैं और चावल के पीठे खिलाते है. इस बार कल यानि 4 नवम्बर को अमावस्या है.
दूसरे दिन गोहाइल यानि गोरोया पूजा करते हैं ग्रामीण
दूसरे दिन गोहाइल यानि गोरोया पूजा करते हैं ग्रामीण. बड़े ही श्रद्धा से गौशाला के अन्दर घर के बने चावल के गुंड़ी और गुड़ के पीठे और फूल चढ़ाए जाते हैं. अलग-अलग गुस्टी के लोग परम्परानुसार ढेंकी से कूटे चावल की गुंड़ी से रंगोली सजाते हैं अपने घर-आँगन में. कोई गुस्टी एक दांड़ी, तो कोई दो दांड़ी की रंगोली बनाता है. यह बहुत ही महत्वपूर्ण है गुस्टी की पहचान करने के लिहाज से. बड़े ही हर्षोल्लास का माहौल व्याप्त हो जाता है इस दौरान.
तीसरे दिन बरद खूंटाव
तीसरे दिन बरद खूंटाव होता है. इस दिन गाँव की कुल्ही यानि सड़क पर गाड़े गए खूंटे से बैल को बांधकर उनके सामने ढोल-नगाड़ों की थाप पर लोग नाचते गाते और बैलों को नचाते हैं. यह दिन मवेशियों की पूजा और सम्मान का होता है. झारखंडी समुदाय के लोगों का मानना है कि उनकी खेती में घर के मवेशियों का काफी योगदान रहता है. इस दिन घर में कई प्रकार के पीठा बनते हैं.
चौथे दिन बूढ़ी बांदना
इस दिन भी गांव में खूंटाव का प्रचलन रहा है. कल के दिन बैलों को ही खूंटाने का रिवाज है, लेकिन इस दिन सिर्फ भैंसों को ही खूंटाया जाता है, ऐसी मान्यता है. झारखण्ड के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग समुदायों में सोहराय/बांदना को लेकर मत-भिन्नता भी विद्यमान है. संताल जन-जाति के लोग इस परब के दौरान कुछ अलग तरह के रस्म करते हैं, वहीं कुड़मी जाति की जो आदि संस्कृति है, उसके अनुसार रस्म कुछ अलग होते हैं, परन्तु सभी का उद्देश्य एक है और वह यह कि खरीफ की खेती के बाद जब खलिहान में फसल काटकर आने लगती है, तो इसी ख़ुशी में लोग यह परब मनाते हैं. सभी का मकसद अपने पशुधन का सत्कार करना होता है.
पांचवें दिन समापन
इस दिन परब का समापन हो जाता है. इसके बाद लोग फिर अपने कार्य में मशगूल हो जाते हैं.
कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि झारखंडी समाज में इस पर्व का बेहद महत्व है। इस पर्व को उत्सव की तरह पूरे उमंग के साथ मनाया जाता है. आपसी प्रेम, सद्भाव और मेल-जोल का अद्भूत नमूना पेश करता है यह त्यौहार. पूरे त्यौहार के दौरान यह स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि किसान अपने उन मित्रों का आभार करना नहीं भूलता है, जो उनके कृषि-कार्य में हाथ बंटाते है. इस त्यौहार में पूरी आस्था और प्रेम से उनकी सेवा और पूजा करते हैं. सबसे प्रमुख बात यह है कि किसान इस दौरान जिन चीज़ों का उपयोग करते हैं, सभी के सभी अपने खेतों में उपजाए होते हैं. यानि वे हमेशा से आत्मनिर्भर रहे हैं. हालांकि समय के साथ काफी बदलाव आया है. बाहरी हस्तक्षेप के कारण गांव के इन लोगों के जीवन-शैली भी प्रभावित हुई है. वर्तमान समय में वे चीज़ें दिख रही हैं. नई पीढ़ी के लोग धीरे-धीरे अपनी इस समृद्ध संस्कृति व परंपरा से विमुख हो रहे हैं, जो भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है. इसे आगे भी लेकर जाने में ग्रामीण समाज का कल्याण निहित है, इसे युवा पीढ़ी को समझना पड़ेगा.
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