विद्रोही कवि काजी नजरूल इस्लाम
यूं तो इनका जन्म अविभाजित भारत के बंगाल प्रान्त में 25-मई-1899 को आसनसोल के पास चाकुलिया गांव में हुआ था। नज़रुल ने जीवन की अंतिम सांस 27 अगस्त 1976 को बांग्लादेश के ढाका में लिया।
“दुक्खू मियां” नजरुल
इनकी शरुआती जिंदगी का जुड़ाव इस्लामी परिवेश से रहा, क्योंकि पिता ‘काजी फकीर अहमद’ मस्जिद के इमाम थे, इसलिए घर का माहौल पूरा मजहबी था। बचपन में शांत स्वभाव व खोये-खोये से रहने वाले इस लड़के को लोग “दुक्खू मियां” (यानी दुःखी लड़का) तक पुकारने लगे थे। जब वे महज़ दस वर्ष के थे तब पिता चल बसे, जिसके कारण मस्जिद की देख -रेख का जिम्मा भी उठाना पड़ा। बाद में उनका जुड़ाव साहित्य और संगीत से हुआ, क्योंकि चाचा की एक संगीत मंडली थी और पूरे बंगाल में कार्यक्रम के सिलसिले में घूमना होता था। शरुआत में मंडली के लिए उन्होंने बांग्ला भाषा में कई गीत लिखे। बांग्ला के साथ-साथ वे संस्कृत, फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता थे। कुरआन के साथ पुराण भी अध्ययन किया और रविन्द्र नाथ टैगोर, शरत के साथ रूमी को भी पढ़ा।
विद्रोही कवि नजरुल
कुछ ही सालों में उनकी जिंदगी ने एक और करवट ली। 1917 में वे ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हो गए। इसका कारण था तत्कालीन सैन्य-राजनीतिक हालात में दिलचस्पी। कराची कैंट में उनकी तैनाती थी। वहां उनके पास ज्यादा काम नहीं था। लिहाजा पढ़ना-लिखा जारी रहा। ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती के महज़ दो साल बाद 1919 में इनकी पहली किताब आई ‘एक आवारा की ज़िंदगी’ और कुछ माह बाद हीं पहली कविता ‘मुक्ति’ प्रकाशित हुई। 1922 में छपी कविता ‘विद्रोही’ इतनी मशहूर हुई कि उनका नाम ही ‘विद्रोही कवि’ पड़ गया. ये कविता अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे क्रांतिकारियों का प्रेरक गीत बन गई। इनके कविता संग्रह में साम्यवादी, किसानों की ईद, मेरी कैफियत इत्यादि कई शीर्षक शामिल हैं।
ज़िंदगी में प्रेम का पहलू
1921 में कोमिला की अपनी यात्रा के दौरान नज़रूल एक युवा बंगाली हिंदू महिला प्रमिला देवी से मिले, जिनसे उन्हें प्यार हो गया और दोनों धर्मों के कट्टर लोगों के भारी विरोध के बावजूद उन्होंने 25 अप्रैल 1924 को शादी कर ली। ब्रह्म समाज ने एक मुस्लिम से शादी करने के लिए ब्रह्म समाज की सदस्य प्रमिला की आलोचना की। मुस्लिम धर्मगुरुओं ने नजरूल की हिंदू महिला से शादी के लिए आलोचना की। उनके लेखन के लिए उनकी आलोचना भी की गई थी। दिलचस्प है कि नजरुल ने भक्ति साहित्य को जहां कई इस्लामिक मान्यताओं वाली रचनाएं दीं, वहीं बंगाली समाज में देवी दुर्गा की भक्ति में गाया जाने वाला श्यामा संगीत और कृष्ण गीत-भजन की दुनिया को भी उन्होंने समृद्ध किया।
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नज़रुल की ज़िंदगी का सबसे दिलचस्प हिस्सा
नज़रुल इस्लाम की ज़िंदगी का सबसे दिलचस्प हिस्सा, जो आज भी भारतीय उपमहाद्वीप में चल रहे घोर साम्प्रदायिक माहौल में कितना प्रासंगिक है न ? मैं दिलचस्प इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वह व्यक्ति जिनका प्रारंभिक जीवन ही पूरा मज़हबी / धार्मिक माहौल में गुजरा हो, वो इतना विद्रोही तेवर के साथ लिख सकता है। नज़रुल की भक्ति भावना तब मुखर विरोध और हस्तक्षेप में बदल गई, जब उन्हें लगा कि सांप्रदायिक कट्टरता से देश-समाज को बहुत नुकसान पहुंच रहा है।
चोटी हिंदुत्व नहीं है। दाढ़ी इस्लाम नहीं है-नजरुल
2 सितंबर 1922 को बंगाली मैगज़ीन ‘गनबानी’ में एक आर्टिकल छपा. आर्टिकल का टाइटल था ‘हिंदू मुसलमान’. इसमें नज़रुल ने लिखा था- “मैं हिंदुओं और मुसलमानों को बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन चोटी वालों और दाढ़ी वालों को नहीं। चोटी हिंदुत्व नहीं है। दाढ़ी इस्लाम नहीं है। चोटी पंडित की निशानी है। दाढ़ी मुल्ला की पहचान है। ये जो एक दूसरे के बाल नोचे जा रहे हैं, ये उन कुछ बालों की मेहरबानी है, जो इन चोटियों और दाढ़ियों में लगे हैं। ये जो लड़ाई है, वो पंडित और मुल्ला के बीच की है। हिंदू और मुसलमान के बीच की नहीं। किसी पैगंबर ने नहीं कहा कि मैं सिर्फ मुसलमान के लिए आया हूं, या हिंदू के लिए या ईसाई के लिए आया हूं।”
उन्होंने कहा, “मैं सारी मानवता के लिए आया हूं, उजाले की तरह।” लेकिन कृष्ण के भक्त कहते हैं, कृष्ण हिंदुओं के हैं। मुहम्मद के अनुयायी बताते हैं, मुहम्मद सिर्फ मुसलमानों के लिए हैं. इसी तरह ईसा मसीह पर ईसाई हक़ जमाते हैं। कृष्ण-मुहम्मद-ईसा मसीह को राष्ट्रीय संपत्ति बना दिया है। यही सब समस्याओं की जड़ है। लोग उजाले के लिए नहीं शोर मचा रहे, बल्कि मालिकाना हक़ पर लड़ रहे हैं।”
नज़रूल के लेखन ने स्वतंत्रता, मानवता, प्रेम और क्रांति जैसे विषयों की खोज की। उन्होंने धार्मिक, जाति-आधारित और लिंग-आधारित सहित सभी प्रकार की कट्टरता और कट्टरवाद का विरोध किया।
“मनुष्य से घृणा कर के
कौन लोग
कुरान, वेद, बाइबल
चूम रहे हैं बेतहाशा
किताबें और ग्रन्थ छीन लो
जबरन उनसे
मनुष्य को मार कर ग्रन्थ पूज रहा ढोंगियों का दल
सुनो मूर्खों,
मनुष्य ही लाया है ग्रन्थ
ग्रन्थ नहीं लाया मनुष्य को!
– काज़ी नज़रुल इस्लाम
(कविता: कौन लोग)
आलेख-मिसाल
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शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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