अफ़स्पा एक बहुत विवादास्पद क़ानून रहा है और इसको लेकर यहां के लोगों में भारी नाराज़गी रही है. ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा पूर्वोत्तर के कुछ इलाक़ों से इस क़ानून को हटाने का फैसला दरअसल इस क्षेत्र के लोगों के ग़ुस्से को कम करने का एक प्रयास है.वैसे तो इस क़ानून का सालों से विरोध हो रहा है.
लेकिन पिछले साल 4 दिसंबर को भारतीय सेना की गोलियों से नगालैंड के मोन ज़िले के ओटिंग गाँव के 14 नागरिकों की मौत के बाद पूर्वोत्तर में जिस व्यापक स्तर पर विरोध सामने आया उससे केंद्र सरकार पर दवाब बना. हालांकि सरकार ने मोन ज़िले से इस क़ानून को नहीं हटाया है.
ये क़ानून किसी कार्रवाई के दौरान ग़लती से या अपरिहार्य परिस्थितियों में किसी नागरिक को मार देने वाले सैनिकों को भी बचाता है.
अफ़स्पा को अलगाववाद से प्रभावित पूर्वोत्तर भारत में सेना को कार्रवाई में मदद के लिए 11 सितंबर 1958 को पारित किया गया था. बाद में जब 1989 में जम्मू-कश्मीर में चरमपंथ ने सिर उठाया तब 1990 में इसे वहां भी लागू कर दिया गया था.उत्तर-पूर्वी भारत में जातीय समूहों ने लंबे समय से इस कठोर क़ानून का विरोध किया है.
दरअसल अफ़स्पा क़ानून भारतीय सुरक्षा बलों को कहीं भी अभियान चलाने और बिना किसी पूर्व वारंट के किसी को भी गिरफ़्तार करने का अधिकार देता है. ये क़ानून किसी कार्रवाई के दौरान ग़लती से या अपरिहार्य परिस्थितियों में किसी नागरिक को मार देने वाले सैनिकों को भी बचाता है.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि नगालैंड, असम और मणिपुर राज्यों में अफ़स्पा के तहत आने वाले क्षेत्रों को शुक्रवार (1 अप्रेल) से कम कर दिया जाएगा.
असम में भी 68 बार इस क़ानून की अवधि को बढ़ाया गया और अब जाकर 23 ज़िलों से इसे पूरी तरह हटाया है. लेकिन सरकार ने केवल छह महीने के लिए ही इस क़ानून को हटाया है. अब आगे सब कुछ यहां की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा.’केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि नगालैंड, असम और मणिपुर राज्यों में अफ़स्पा के तहत आने वाले क्षेत्रों को शुक्रवार (1 अप्रेल) से कम कर दिया जाएगा.
असम के 23 ज़िलों से क़ानून को पूरे तौर पर और एक ज़िले से आंशिक रूप से हटाया दिया गया है.राज्य के कुल 33 ज़िलों में से यह क़ानून डिब्रूगढ़, तिनसुकिया, शिवसागर, चराईदेव, जोरहाट, कार्बी आंगलोंग, पश्चिम कार्बी आंगलोंग, डीमा हसाउ समेत कछार के लखीपुर उप-मंडल में प्रभावी रहेगा. असम में यह क़ानून 1990 से प्रभावी है.
मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला 16 साल तक भूख हड़ताल पर रहीं.
पूर्वोत्तर राज्यों में अफ़स्पा का सबसे ज्यादा विरोध मणिपुर में देखने को मिला है. मणिपुर की सामाजिक कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला 16 साल तक भूख हड़ताल पर रहीं.केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अपने आदेश में सूबे के छह ज़िलों के 15 पुलिस थाना क्षेत्रों को अशांत क्षेत्र की अधिसूचना से बाहर रखा है, लेकिन 16 ज़िलों के 82 पुलिस थानों में लागू रहेगा.
इस क़ानून को लेकर अरुणाचल प्रदेश में यथास्थिति बनी रहेगी.
जिन छह ज़िलों के 15 पुलिस स्टेशनों से अफ़स्पा को हटाया गया है उनमें इम्फाल वेस्ट (इम्फाल, लाम्फेल, सिटी, सिंगजामेई, सेकमाई, लमसांग, पटसोई), इम्फाल ईस्ट (पोरोमपत, हेइंगांग, लामलाई इरिलबंग), थौबल, विष्णुपुर, काकचिंग और जिरीबाम शामिल है. नगालैंड के सात ज़िलों के 15 पुलिस स्टेशनों के अधिकार क्षेत्र से अफ़स्पा को हटाया गया है.लेकिन 13 जिलों के 57 पुलिस स्टेशनों में यह क़ानून लागू रहेगा.
इरोम चानू शर्मिला ने मीडिया में कहा है कि मेरे जैसे कार्यकर्ता के लिए यह वास्तव में एक अच्छा क्षण है.
अशांत क्षेत्र की अधिसूचना 1995 से पूरे नगालैंड में लागू है.हालांकि, इस क़ानून को लेकर अरुणाचल प्रदेश में यथास्थिति बनी रहेगी. अर्थात राज्य के नामसाई और महादेवपुर के दो पुलिस स्टेशनों और तिरप, चांगलांग, लैंगडिंग के तीन ज़िलों में अफ़स्पा लागू रहेगा.केंद्र सरकार के इस फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इरोम चानू शर्मिला ने मीडिया में कहा है कि मेरे जैसे कार्यकर्ता के लिए यह वास्तव में एक अच्छा क्षण है.
मानव अधिकार के लिए काम करने वाले कई लोगों का यह आरोप है कि अफ़स्पा की आड़ में सुरक्षा बलों के कुछ अधिकारियों ने निर्दोष लोगों की जान ली है.
दरअसल यह एक नई शुरुआत है और दशकों से चली आ रही लड़ाई का परिणाम है. एक पुराने और औपनिवेशिक क़ानून को निरस्त करने का निर्णय मुझे लोकतंत्र का वास्तविक संकेत लगता है. इस दिशा में यह पहला कदम उठाया गया है और मैं चाहती हूं कि अफ़स्पा को पूरे उत्तर-पूर्व से स्थायी रूप से समाप्त कर दिया जाए.
सभी घटनाओं की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी.
साल 2010-12 में मानवाधिकार संगठन “एक्स्ट्रा ज्युडिशियल विक्टिम फैमिली एसोसिएशन” ने क़रीब 1528 ऐसे मामलों में सेना और पुलिस द्वारा फ़र्ज़ी मुठभेड़ की बात उठाई थी और इस संदर्भ में इन सभी घटनाओं की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी. मानव अधिकार के लिए काम करने वाले कई लोगों का यह आरोप है कि अफ़स्पा की आड़ में सुरक्षा बलों के कुछ अधिकारियों ने निर्दोष लोगों की जान ली है.
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