पूरे चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश यादव ‘वन मैन आर्मी’ की तरह काम किया और अपने पिता की तरह जनेश्वर मिश्र, रेवती रमण सिंह, माता प्रसाद पाँडे, बेनी प्रसाद वर्मा और आज़म ख़ाँ जैसा दूसरी पंक्ति का नेतृत्व देना तो दूर उसके आसपास भी नहीं फटके. उन्होंने चुनाव में उन लोगों के कहने पर टिकट दिए हैं जिनका राजनीति से दूर दूर का लेनादेना नहीं है. पहले उन्होंने मुख़्तार अंसारी को पार्टी में शामिल करने का विरोध किया था लेकिन बाद में उन्होंने उनके परिवार को पार्टी में शामिल कर लिया.
इस चुनाव में अखिलेश की कोर टीम में शामिल थे उदयवीर सिंह, राजेंद्र चौधरी, अभिषेक मिश्रा और नरेश उत्तम पटेल. उनके फीडबैक के आधार पर समाजवादी पार्टी में टिकट बाँटे गए थे. कुछ सीटों पर समाजवादी पार्टी ने नए उम्मीदवार उतारे.नतीजा ये रहा कि या तो उन्होंने पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के ख़िलाफ़ काम किया या वो अपनी पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी के सदस्य बन गए जिससे पार्टी के उम्मीदवार को हार का मुँह देखना पड़ा.
बीजेपी से आए कुछ मंत्रियों को न सिर्फ़ अपनी पार्टी में शामिल करना बल्कि उन्हें टिकट देना भी लोगों के गले नहीं उतरा.
चुनाव प्रचार में भीड़ जमा करने के बावजूद मीडिया उनके समर्थन में उतरने से कतराता नज़र आया. आखिरी समय पर बीजेपी से आए कुछ मंत्रियों को न सिर्फ़ अपनी पार्टी में शामिल करना बल्कि उन्हें टिकट देना भी लोगों के गले नहीं उतरा. स्वामी प्रसाद मौर्य ख़ुद फ़ाज़ीलनगर से चुनाव हार गए. जब उनकी भाभी अपर्णा यादव ने समाजवादी पार्टी छोड़ कर बीजेपी का दामन पकड़ा तो उन्होंने उन्हें रोकने की कोई कोशिश नहीं की.
अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने अब तक तीन चुनाव लड़े हैं 2017 का विधानसभा चुनाव, 2019 का लोकसभा चुनाव और 2022 का विधानसभा चुनाव और तीनों में उनको उनको उम्मीद के मुताबिक़ कामयाबी नहीं मिली.अखिलेश यादव के आलोचकों का कहना है कि इस चुनाव में उन्होंने अपनी ग़ैर राजनीतिक टीम पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया. रणनीति के मामले में वो अपने पिता का मुक़ाबला नहीं कर पाए.
उनकी झोली में नॉन यादव पिछड़े वोट नहीं आए जिसकी उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी.
बीजेपी का अनुसरण करते हुए अखिलेश ने कुछ छोटी पार्टियों जैसे ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, केशवदेव मौर्य के महान दल, संजय सिंह चौहान की जनवादी पार्टी और अपना दल (के) और राष्ट्रीय लोक दल के साथ चुनावी समझौता किया, बावजूद इसके उनकी झोली में नॉन यादव पिछड़े वोट नहीं आए जिसकी उन्होंने उम्मीद लगा रखी थी.
अखिलेश यादव ने सोचा कि महज़ पिछड़ी जातियों को अधिक टिकट देने से वो उनका समर्थन लेने में सफल हो जाएंगे. उनके पास जाति जनगणना करने और पिछड़ी हुई ओबीसी जातियों को आरक्षण में कोटा देने के लिए आँदोलन करने का विकल्प था लेकिन उन्होंने इस दिशा में कोई पहल करने की मंशा नहीं दिखाई.
अखिलेश वो चुनाव हारे जिसे वो बेहतर राजनीतिक समझ से जीत सकते थे.
इसमें कोई संदेह नहीं कि जाटों में असंतोष होने को बावजूद वो इसका राजनीतिक फ़ायदा नहीं उठा पाए. जाटों के वोट पर ज़रूरत से ज़्यादा ज़ोर ने सैनी और गुजरों को समाजवादी पार्टी से दूर कर दिया और उन्होने बीजेपी को वोट दिया.राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि जाट बहुल चुनाव क्षेत्रों में मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा करना जाटों को पसंद नहीं आया और उनके पास बीजेपी के पास जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहा.
उनकी सीटों में तीन गुना इज़ाफ़ा हुआ और वो 47 से बढ़ कर 124 हो गईं, लेकिन इतना भी सरकार बनाने के लिए काफ़ी नहीं था. अखिलेश वो चुनाव हारे जिसे वो बेहतर राजनीतिक समझ से जीत सकते थे.
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