आज गालिब की पुण्यतिथि थी. आज ही के दिन दिल्ली में उनका देहांत हो गया. हालांकि उनके आखिरी 03 साल बहुत खराब और बीमारियों वाले थे. उनका चलना-फिरना बंद हो चुका था. बस पलंग पर लेटे रहते थे. गम इस बात का भी था कि कर्जदार हो गए थे, इससे मुक्त कैसे हो पाएं.
उर्दू फारसी के महान शायर
गालिब उर्दू फारसी के ऐसे महान शायर थे जो अपनी मृत्यु के 150 सालों बाद अब और अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं. पढ़े जा रहे हैं. सुने जा रहे हैं. गालिब का जीवन जिंदादिली का जीवन था. लेकिन उनके आखिरी दिन अच्छे नहीं थे. वो चलने -फिरने में लाचार हो गए थे. उन पर कर्ज भी लद गया था. उनकी सेवा सुश्रुषा की भी स्थितियां अच्छी नहीं थी. लेकिन उसमें गालिब मस्त रहते थे. अपने खराब समय में और बिस्तर पर ही लेटे रहने का जिक्र उन्होंने खुद किया.
यादों को म्युजियम के तौर पर उनकी बल्लीमारान की हवेली में संजोया
इस महान शायर का निधन 71 साल की उम्र में 15 फरवरी 1869 में दोपहर में हुआ. बाद में उनकी यादों को म्युजियम के तौर पर उनकी बल्लीमारान की हवेली में संजोया गया. अब गालिब के चहेते पुरानी दिल्ली में चांदनी चौक के करीब उनकी इस हवेली में जाकर उनकी यादों को ताजा करते हैं. ये कहा जा सकता है कि उन्होंने तब उर्दू और फारसी में काव्य में परंपराओं से हटकर जिस तरह का नया काम किया, वो अब भी सराहा जाता है बल्कि यों कहें कि उनमें इतने समय बाद भी ताजगी और हर समयकाल में फिट बैठने का आलम है.
आखिरी दौर मुश्किल और बीमारियों से भरा
आगरा में पैदा हुए गालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह खान ग़ालिब था. आखिरी दौर उनका यकीनन मुश्किल और बीमारियों भरा था. वो गमों से भरे होते थे. उन्हें ये चिंता खाए जा रही थी कि वो कर्जदार हो गए हैं और ये कर्ज कैसे खत्म कर दुनिया से कूच कर पाएं. शायद उन्हें इस बात की बहुत फिक्र होती थी कि जब वो जाएं तो बगैर कर्ज के सम्मान से जाएं लेकिन ऐसा हो नहीं सका.
सेवा के लिए दूसरों पर आश्रित
ऐसा लगता है कि मरने से 02-03 साल पहले वो अपाहिज वाली स्थिति में आ गये थे. उनका चलना फिरना बंद हो चुका था. वो सेवा के लिए दूसरों पर आश्रित हो चुके थे. 1867 के एक खत में उन्होंने लिखा. ‘मैं अहाते में सोता हूं. सुबह-सुबह दो आदमी मुझे हाथों पर उठाते हैं. एक अंधेरी कोठरी है, उसमें डाल देते हैं और दिन भर अंधेरे कोने में पड़ा रहता हूं. शाम को फिर दो आदमी मुझे उठाते हैं और आंगन में पलंग पर लाकर डाल देते हैं.’
ग़ालिब ने रामपुर के नवाब को कई खत लिखे
1867 से 1869 के मध्य में मिर्ज़ा ग़ालिब ने रामपुर के नवाब को कई खत लिखे. वह अपना कर्ज चुका कर मरना चाहते थे. 17 नवंबर 1868 को ग़ालिब ने बहुत बेचैनी से रामपुर के नवाब को लिखा, ‘मेरी हालत बद से बदतर हो गई है.आपके दिए हुए 100 रुपये के वजीफे में से मेरे पास बस 54 रुपये बचे हैं, जबकि मुझे अपनी इज्जत को बचाए रखने के लिए करीब 800 रुपयों की जरूरत है.’ आखिरी सालों में रामपुर के नवाब उन्हें हर महीने 100 रुपए की पेंशन देते थे, जिससे उनका खर्च चला करता था.
लेकिन शायद रामपुर के नवाब ने उनके रुपयों की दरकार वाले पत्र पर कोई तवज्जो नहीं दी. मौत से तीन महीने पहले उन्होंने फिर खत लिखा. वह लिए हुए कर्ज के साथ मरना नहीं चाहते थे. उन जैसे कुलीन के लिए इस हालत में मरना बड़ी शर्मिंदगी की बात होती. आखिर जिंदगी भर वो बहुत खुद्दारी के साथ जीते रहे थे. हालांति इस दौरान एक दो बार ऐसे हालात जरूर बने जब उनकी रुसवाई भी हुई.
आखिरी पल काफी दर्दनाक
मिर्ज़ा की ज़िन्दगी ज़्यादातर दु:खों में बीती. पारिवारिक सुख के लिए ये सदा ही तरसते रहे. 07 बेटे और बेटियां हुए लेकिन कोई भी जिंदा नहीं बचा. पत्नी से भी वो सुख उन्हें नहीं मिल सका.
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