जेल का नाम हमारे जेहन में वही एक सीन क्रिएट करता है जो अक्सर सिनेमा देखते-देखते दिलो-दिमाग में उतर चुका है। लेकिन जेल अब वहीं तक सीमित नहीं हैं। दरअसल अब वह उस ‘साम्राज्य’ की तरह स्थापित होती जा रही हैं कि जहां से वसूली, ‘अय्याशी’ का सरकारी अड्डा बनती दिख रही हैं।
जब देश की सर्वोच्च अदालत ने तिहाड़ जेल की दयनीय हालत पर कुछ ऐसी तल्ख टिप्पणी की, ‘तिहाड़ की हालत दयनीय है, जो अपराधियों का अड्डा बन गई है और वहां हत्याएं हो रही हैं।’
जब देश की सबसे बड़ी जेल की स्थिति ऐसी है तो देश की हजारों छोटी बड़ी, सेंट्रल, राज्य, जिला और क्षेत्रीय जेलों की स्थिति भी स्वयं आपके मन-मस्तिष्क में उभर आई होगी। पानी ऊपर से ही बहता है। उसी तरह अपराध का साम्राज्य भी भले बनता शनै: शनै: है, लेकिन जहां हम उसका अंत मानते हैं, दंडित कर सजा काटने भेजते हैं, वहां से भी अपराध की जड़ों की कैसे सिंचाई होती है, इसके उदाहरण आपको अपने आसपास की जेलों में बखूबी दिखाई दे सकते हैं।
सुकेश जैसे कैदी ठाठ से जेल में रहते हैं
तिहाड़ जेल से जुड़े सुकेश चंद्रशेखर के प्रकरण में पहले उजागर होता है कि 200 करोड़ रुपये की ठगी उसने जेल में बैठे हुए ही कर ली। इतनी मोटी रकम को उसने ठिकाने भी लगा दिया। अब यह सब जेल में अचानक तो हुआ नहीं। ऐसे भ्रष्टाचार तो तभी उजागर होते हैं, जब कहीं ‘टांका’ फिट नहीं बैठता या कह लें कि दाल नहीं गलती। या फिर पानी ज्यादा नीचे तक बह गया हो। तभी तो अब तक सुकेश जैसे कैदी ठाठ से जेल में रहते हैं। उसे हर प्रकार की वीआइपी सुविधा मिलती थी। इसे महज एक उदाहरण से ही समझा जा सकता है कि जेल की जिस बैरक में 30 कैदी रखे जा सकते हैं, वहां अकेले सुकेश को रखा गया था। उसके आलीशान रहन सहन के हाल ही में वीडियो भी वायरल हुए।
रुपयों से खरीदी जा रही सुख-सुविधा
अगर कोई कैदी जो पैसेवाला हो वो बैरक में आता है तो ऐसा भी नहीं है कि बैरक में सारे ऐशो आराम उसे ‘निशुल्क’ मिलेंगे। कहा जा रहा है कि इसके लिए हर माह के हिसाब से करोड़ों रुपये तक का भुगतान किया जाना होता है। यानी वह पैसे देकर अपने लिए सुख-सुविधा खरीद सकते हैं। अब आप ही बताइए कि ऐसे में सिस्टम भ्रष्ट है कि अपराधी? गौर करने वाली बात यह भी है कि इस करोड़ों रुपये का आवंटन किसी एक पद पर तो नहीं हो रहा होगा, निश्चित ही इसमें भी ऊपर से नीचे (अधिकारियों से सिपाहियों तक) के क्रम में बंदरबांट होती होगी।
इसी तरह गौतमबुद्ध नगर स्थित लुक्सर जेल में भी देश के बहुचर्चित बाइक बोट प्रकरण से जुड़े कैदियों को भी तमाम सुविधाएं पहुंच रही थीं। वहां भी सुविधाओं के नाम पर लाखों के वारे-न्यारे हो रहे थे। लेकिन जांच के घेरे में कौन आया? सिपाही। अब एक अकेले सिपाही की मिलीभगत से जेल सिस्टम चल रहा है तो फिर वाकई इससे जुड़े अधिकारियों की कार्यशैली पर भी प्रश्नचिन्ह है। यदि उनकी भी संलिप्तता थी और ऐसे में मामला सिपाही के स्तर पर ही निपटा दिया गया तो जांच पर सवाल है।
जेल के भीतर होती सभी गलत काम
क्या आपने वेब सिरीज़ “क्राइम जस्टिस” सीजन 1 देखा है? अगर नही देखा तो एक बार ज़रूर देखें। इस वेब सीरीज में तमाम उदाहरण जेलों से जुड़े मिल जाएंगे। गैंगवार, ड्रग्स बेचना,जेल के भीतर से ही गैंग का संचालन करना, दूसरे या विरोधी गुट के बदमाश की हत्या कराना और कैदियों तक मोबाइल पहुंचाना, ये सब जेल परिसर के माहौल के लिए सामान्य होता लगता है। सच पूछिए तो जेल से जुड़ा सिस्टम ही ईमानदारी से बता सकता है कि क्या वाकई वो इसे सुधारने की नीयत भी रखता है? उसकी अफसरी का तो यह सब हिस्सा बन गया है।
अदालत की चिंता से सुधार की आस
अब सवाल उठता है कि हमारा जेल सिस्टम तो ऐतिहासिक है। यहां के किस्से, कहानियां इतिहास में भी दर्ज हैं। लिहाजा इसके विस्तार में जाना हमारा आज का विषय नहीं है। हम सुधार की बात करने की जरूरत की ओर बढ़ रहे हैं। जेल के सिस्टम की अनिवार्यता, उपयोगिता और जरूरत सर्वविदित है, लेकिन उस ढांचे को कैसे बेहतर बनाया जाए? सुप्रीम कोर्ट द्वारा चिंता जताने से पहले भी जेल सिस्टम पर काम करने वाली अनेक सामाजिक संस्थाएं या जेलों में सुधार हेतु बने राष्ट्रीय मंच आदि भी इस दिशा में काम करते रहे हैं।
इन संस्थाओं द्वारा जारी रिपोर्ट में कैदियों की सुविधाएं, वहां की सुरक्षा, वहां के माहौल, उनके समग्र संरक्षण, स्टाफ की कमी, कैदियों की मौत, प्रशिक्षण, जेल में क्षमता से अधिक कैदियों की संख्या और वीआइपी कैदियों की सुविधा आदि पर ध्यान आकर्षित कराया गया है। एक पूर्व जस्टिस एमबी लोकुर का इसको लेकर एक प्रोजेक्ट भी था, ‘इनह्यूमन कंडिशंस इन 1382 प्रिजंस।’
जेल में स्टाफ की कमी
अदालत की चिंता से इसमें सुधार हो यह एक आस जरूर जगती है। जिन बड़ी जेलों में बहुत नजदीक से पर्यवेक्षण की जरूरत है, वहां लचरता के तमाम प्रमाण मिलते हैं। जेल में स्टाफ की उतनी उपलब्धता नहीं है जैसा कि तिहाड़ के आंकड़े भी बताते हैं। जुलाई 2020 में यहां लगभग 1100 से अधिक स्टाफ की कमी थी। हालांकि पिछले एक साल में इस संबंध में परिवर्तन जरूर आया, इसके बावजूद कमोबेश स्थितियां अब भी वैसी ही हैं।
सुधार का जिम्मा कौन उठाए?
सवाल तो यह भी उठता है कि आखिर सुधार का जिम्मा कौन उठाए? दिल्ली को छोड़ दें तो अन्य राज्यों के मामले में जेल राज्य का विषय बन जाती है। इसे लेकर गृह मंत्रलय ने कुछ साल पहले सभी राज्यों से जेल के नियमों में जरूरी संशोधन भी करने को कहा था। जिसमें एकल व्यवस्था की बात थी। इसकी जिम्मेदारी पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो (बीपीआरडी) को दी गई थी। कोरोना के पहले इस पर नियमित बैठकें भी हुईं। राज्यों के प्रतिनिधि इसमें आते रहे, पर तकरीबन एक साल से प्रत्यक्ष मुलाकातें बंद हैं। समझना होगा कि जहां हम कैदियों को सुधार के लिए भेजते हैं वहां के सिस्टम को ही पहले सुधार की जरूरत है।
जेलों के भीतर पैसों के बूते पर खास कैदियों को सुविधाएं उपलब्ध कराने की हाल में कई खबरें आई हैं। नियमों की अनदेखी करते हुए जिन कैदियों को जेलों में विशेष सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं, उसके पीछे बड़ा कारण हमारा भ्रष्ट तंत्र ही है। ऐसे में इस पूरे सिस्टम की गंभीर पड़ताल के साथ उसमें शामिल सभी तत्वों की पहचान और उस पर नियंत्रण आवश्यक है ताकि जेल के अर्थ को सार्थक बनाए रखा जा सके।
तिहाड़ जेल हो या फिर किसी भी राज्य की कोई जिला या अन्य जेल, यहां कैदियों के पास से अक्सर मोबाइल फोन या ब्लेड जैसे धारदार सामान मिलना, उनकी गलत या फिर कहें कि आपराधिक कार्यो में संलिप्तता को ही दर्शाते हैं। इन मामलों को इस तरह समझना होगा कि जेल में गैर कानूनी तरीके से सामान पहुंचाने वाले कोई और ही हैं। यानी बाहरी दुनिया से हैं। और इसी बाहरी दुनिया के लोगों में जेलकर्मी भी शामिल हैं। अगर बाहरी दुनिया की सुख-सुविधाएं और तकनीक जेल के भीतर तक पहुंच रही हैं तो उसमें सुरक्षा पर प्रश्नचिन्ह है।
जेल और बाहर की दुनिया के बीच खींची गई सुरक्षा रेखा कमजोर
जेल और बाहर की दुनिया के बीच खींची गई सुरक्षा रेखा कमजोर पड़ चुकी है। तिहाड़ जेल या उत्तर प्रदेश की जेलों को ही लीजिए तो वहां सीसीटीवी लगे हुए दिखते हैं, जैमर भी पुख्ता काम करते हैं, सर्विलांस का सिस्टम मजबूत दिखता है, इसके बावजूद इस तरह का षड्यंत्र जाल कैसे बगैर भीतर के अधिकारी, स्टाफ की शह के पनप सकता है? उत्तर प्रदेश की जेलों में सीसीटीवी से निगरानी की पहल हुई है। हां, वहां एक कमरे से सभी वार्डो में भी नजर रखी जा सकती है। इस तरह की पहल हर जेल में की जा सकती है। कहने को तो तिहाड़ में भी हजारों सीसीटीवी लगे हैं। फिर कैसे इन तकनीकी आंखों में धूल झोंक दी जाती है?
जहां तक जेलों में कैदियों के सुधार की बात है, तो इन्हें किसी एक परंपरागत तरीके से नहीं सुधारा जा सकता। उम्रकैद की सजा पाए कैदियों के अलावा यहां हर रोज कैदी बदलते रहते हैं। इसमें सजायाफ्ता के साथ विचाराधीन कैदी भी होते हैं। वह अलग परिवेश और अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं। अलग-अलग चरित्र के होते हैं और अपने साथ नए तरीके भी लाते हैं। वह क्या सोच रहे हैं यह जानना मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं। इनके सुधार के लिए अलग अलग पृष्ठभूमि के सुधारक रखे जा सकते हैं, जो इनके व्यक्तित्व और इनकी गतिविधियों पर नजर रखकर इनके समग्र सुधार पर ध्यान दे सकें।
तिहाड़ जेल – एक आश्रम
तिहाड़ जेल के विषय में कहा जाता है कि इसका ढांचा, इसकी संरचना किसी जेल की भांति नहीं है, यह किसी आश्रम की तरह बनी हुई है तो निश्चित ही इससे एक सुधार भाव ही झलकता है, लेकिन उस दिशा में सुधार होना चाहिए। कैदी बेहतर होकर बाहर निकलें तो समाज में स्वत: परिवर्तन का संचार होगा। ऐसे में जेल एक बदलाव के साथ प्रेरणा की कहानी बनकर सुधार गृह से निकलने वाले अपराध को भी रोकने का एक जरिया बन सकेंगे। लेकिन अंत में सवाल वहीं आकर रुकता है कि क्या जिस सिस्टम पर भ्रष्ट होने के छीटे हैं, उसकी जिजीविषा उसे सामाजिक बदलाव के लिए झकझोर पाएगी।
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