जनस्वास्थ्य के मुद्दे–
“यदि राष्ट्र के स्वास्थ्य का निर्माण करना है तो स्वास्थ्य कार्यक्रम विकसित किया जाना चाहिये.1946 मे भोरे समिति की सबसे प्रमुख अनुशंसा थी कि पैसा चुकता करने की क्षमता न होने के बावजूद किसी को स्वास्थ्य सेवा से महरूम न किया जाय“.
आम आदमी की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इलाज़ कराने में चला जाता है
आज की नवउदारवादी नीति के माहौल स्वास्थ्य को व्यवसाय और अथवा मुनाफा का जरिया में तब्दील कर कल्याणकारी राष्ट्र की भूमिका और ज़िम्मेदारी को अनदेखा किया जा रहा है। हकीकत यह है की भारत में स्वास्थ सेवा की स्थिति निराशाजनक है– इसे बदलना जरूरी है। सामान्य तौर पर भारत में स्वास्थ्य देखभाल मे अपनी जेब से खर्च औसत दुनिया के अधिकांश देशों से काफी अधिक है। आम आदमी की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इलाज़ कराने में चला जाता है। गंभीर बीमारी का इलाज़ कराने मे घर ज़मीन तक बिक जाती है, लोग कर्ज़ में डूब जाते हैं।
देश की स्वास्थ्य योजनाएँ कोरोना महामारी के समय नाकाफी साबित हुई
इस देश में सरकारी अस्पताल की बदहाली, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की उपलब्धता न होना और स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण– कोर्पोरटीकरण आम जनता और गरीबों के लिए एक गंभीर परिस्थिति पैदा कर दी है। देश में जो भी स्वास्थ्य योजनाएँ चल रही हैं, वो कोरोना महामारी के समय नाकाफी साबित हुई। गाँव-क़स्बे या छोटे शहरों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के जरिये बीमारी की रोकथाम, सदर अस्पताल की उपचार करने की क्षमता विकसित हो सके और पर्याप्त संसाधनों, अस्पताल बेड की व्यवस्था हो, ताकि कोरोनाकाल से जो सबक मिला है, उसे ध्यान में रखा जाय और जरूरतमंद आबादी के लिए स्वास्थ्य का इंतजाम किया जाय।
कुछ महीना पहले देश भर में यक्ष्मा (टी वी ) नियंत्रण डॉट प्रोग्राम के अंदर यक्ष्मा–निवारक दवाई की सप्लाई नहीं थी। 10 साल बाद फिर से बच्चों में पोलियो पाया गया है और सरकार इसकी व्यक्सीन प्रोग्राम में ढिलाई बरत रही है। आज नवजात शिशु को वेक्सीन दिलाने के लिए प्राइवेट में मोटी रकम वसूली जा रही है।
दवा के मूल्य मे बेतहाशा बृद्धि–
हाल ही में केंद्र सरकार थोक मूल्य सूचकांक (Wholesale Price Index) में वृद्धि के अनुरूप, आवश्यक दवाओं की कीमतों मे बृद्धि करने की अनुमति दी है। इस प्रक्रिया मे दवाओं के मूल्य नियंत्रण( द्रुग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर और नेशनल फर्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी)) के मूल सिद्धांतों का बिपरित काम किया जा रहा है। अब देश मे जब–जब थोक मूल्य सूचकांक मे बृद्धि होगी तब–तब जीवनरक्षक दवाई, एंटीबायोटिक, रोजमर्रा के बीपी और सुगर की दवाई, कैंसर तथा दमा जैसे बीमारी का दवाई दाम बढ़ जाएगा। अतः हमारा सरकार से मांग है की सभी दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लिया जाये. और दवा का मूल्य उसमे उत्पादन, विनिर्मान और वितरण खर्च पर तय किया जाय नाकी बाज़ार आधारित हो।
दवाई और चिकित्सकीय उपकरणो मे भारी टैक्स वसूला जा रहा है–
दवाओ पर लगने वाले जीएसटी ने भी दवाओं की कीमतों की बृद्धि मे आग मे घी डालने का काम किया है। वर्तमान मे तीन स्लैब मे 5%,,12% और 18% का जीएसटी लागत मूल्य के बजाय एमआरपी मे लगाया जाता है। दवा के लिए कच्चा माल आयात मे अलग से 10% का टैक्स लगता है। यह निश्चित रूप से देश की आर्थिक–सामाजिक स्थिति पर प्रहार है। हमारे अखिल भारतीय संगठन FMRAI ने भारत मे दवा और चिकित्सकीय उपकरणो पर 0% जीएसटी की मांग की है।
दवा विपणन व मार्केटिंग से जुड़ी कई सवाल
हमारा अखिल भारतीय संगठन FMRAI ( फ़ैडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेन्टेटिव्स एसोसीएशन ऑफ इंडिया),हमेशा से ही दवा मार्केटिंग प्रैक्टिस मे स्वच्छता लाने की बात कही है। दवा के प्रचार वैज्ञानिक जानकारी के आधार पे हो, तथा फजूल खर्चा रोका जा सके ताकि इससे दवा के दाम प्रभावित न हो। हमारी संगठन ने एक लंबी लड़ाई लड़ी और अंत मे महामान्य सूप्रीम कोर्ट के हास्तक्षेप से फार्मा कंपनियों के लिए यूनिफ़ार्म कोड फॉर मार्केटिंग प्रक्टिसेस(UCPMP)-2024 के अंदर दिशानिर्देश जारी होता है, मगर उल्लंघनकारी के लिए सज़ा का प्रावधान नहीं रखा जाता है ।
जब हम देश के लिए सस्ती और अच्छी गुणवत्ता वाली दवाई के लिए मांग कर रहे थे ,तब फार्मा कंपनियाँ अपनी काली करतूत, छुपाने के लिए करोड़ों रुपया चुनावी बांड मे चंदा दे रहा था, और सत्ता मे बैठे राजनैतिक पार्टियाँ सारे नैतिकता को ताक मे रख कर जनता के स्वास्थ के साथ खिलवाड़ करने वाले फार्मा कंपनियो से चंदा लेकर जांच को दबा दिया जा रहा था । कुल मिलाकर 35 फार्मा कंपनियाँ लगभग 1000 करोड़ का चुनावी बॉन्ड खरीदा है। टेस्ट फेल कफ सिरप से लेकर दिल के बीमारियों के दवा,टेस्ट फेल होने के बावजूद कोई आक्शन नहीं लिया जाता है।
कोरोना महामारी के समय विश्व स्वास्थ संस्था जिसे नकार दिया था, हमारी सरकार उस रेमडेसीविर को बनाने ले लिए लाइसेन्स देती है और बाद मे जाईडस कडीला का 5 बैच की रेमडेसीविर से मरीजों की हालत बिगड़ती है, मौते होती है और जांच किए जाने पर एंडोटोक्सिन नामक जहरीला तत्व पाया जाता है, न तों कोई कार्रवाई होती है और न ही दवाई को रोका जाता है। कहीं कोरोना के समय ब्लैक मे दवा बिकती है तों किसी कंपनी मे इनकम टैक्स का छापामारी होता है, मगर किसी के ऊपर कोई कार्रवाई नहीं होती है और मोटी रकम चंदा के तौर पर दिया जाता है।
विडंबना की बात यह है की चंदा के बदले धंधा के खेल को कानूनी अंगलीजामा पहना कर जनता के स्वास्थ के साह खिलवाड़ करने वालों से सत्ताधिन पार्टियां पैसे वसूलने मे कोई गुरेज़ नहीं करती है। हमारी मांग है की सारे पहलू पर जांच हो और दोषी को कठघड़े मे खड़ा किया जाय।
स्वास्थ्य देखभाल के स्रोत–
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार 2025 तक जीडीपी का 2.5 फीसदी स्वास्थ्य सेवा पर सरकारी खर्च का लक्ष्य रखा गया है। साल 2024-25 के केन्द्रीय बजट में कहा गया है कि स्वास्थ्य पर जीडीपी की 2.3 फीसदी आवंटित किया गया है। हमारा मांग है की स्वास्थ पर कम से कम जीडीपी का 5 फीसदी दिया जाय। उल्लेखनीय बात है की हमे वित्त की व्यवस्था भी करना होगा। इसके लिये सुझाव है कि बड़े कार्पोरेट घराने के बैंक से लिये कर्ज को वसूला जाये तथा कार्पोरेट को टैक्स में छूट देना बंद किया जाना चाहिये। हमारी मांगे:-
1) जनहित में स्वास्थ नीति बने और स्वास्थ के बजट मे जी डी पी का 5% आवंटन किया जाय।
2) दवा के लागत मूल्य पर दाम निर्धारित हो तथा दवा पर्व 0% GST लिया जाय।
3) दवा मार्केटिंग मे स्वच्छता के लिए कडा क़ानून पारित हो और उलंघन करने वाले को सज़ा का प्रावधान किया जाय
4) चुनावी बॉन्ड मे चंदा देने वाले दवा व व्यक्सीन बनाने वाली कंपनी और कॉर्पोरेट अस्पताल पर कड़ी जांच तथा कार्रवाई हो।
एक जिम्मेदार ट्रेड यूनियन होने के नाते हमारा मुहिम रहेगा की स्वास्थ और दवा के मुद्दों को जन आंदोलन की रूप दे कर सरकार का ध्यान आकर्षित करें , इस पर चर्चा हो तथा जनहित मे स्वास्थ नीति बनें।
आप से गुजारिश है की ऑन–लाइन पिटिशन को समर्थन दे और हमारे मुहिम को सफल करें।
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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