जीवन के अंतिम कुछ वर्ष ग़ुरबत और गुमनामी में जीने को विवश हुए
इतिहास इस बात का साक्षी है, कि जब-जब अस्तित्व, अस्मिता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए संघर्ष हुए हैं, जेल यातनाएं भी सहनी पड़ी हैं और बलदान भी देने पड़े हैं. भारत को अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद कराने में हज़ारों-लाखों देश-भक्तों ने संघर्ष किया. इस राह में चलते हुए न जाने कितने कष्ट उठाए, न जाने कितने त्याग किए, घर-बार छोड़ना पड़ा भूखे-प्यासे !
फ़िलहाल चर्चा झारखण्ड आन्दोलन के ऐसे एक सच्चे सिपाही की, जिसने जीवन-पर्यंत अवाम के लिए संघर्ष किया, जेल भी गया. लगातार लोगों के हितार्थ कार्य किए, लेकिन जीवन के अंतिम कुछ वर्ष ग़ुरबत और गुमनामी में जीने को विवश हो गया… 3 मार्च उस व्यक्ति की पूण्यतिथि तिथि है.
परसुडीह के सारजोमदा से झारखण्ड आन्दोलन में हिस्सा लेने वाले ये पहले व्यक्ति थे
नाम धीरेन्द्र चन्द्र बेरा. डी.सी. बेरा के नाम से भी जाने जाते थे. पैतृक गांव-कापड़िया, बहरागोड़ा. बाद में परिवार गांव सारजोमदा आया. 1 जनवरी’ 1923 को पैदा हुए एक किसान परिवार में. बचपन से ही पढ़ाई में तेज और सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले. कई सामाजिक व राजनीतिक क्रिया-कलापों में सक्रियता रही. परसुडीह के सारजोमदा से झारखण्ड आन्दोलन में हिस्सा लेने वाले ये पहले व्यक्ति थे.
आन्दोलन के दौरान पुलिस की लाठियां भी खाई और जेल भी गए
धीरेन्द्र चन्द्र बेरा के बारे में जानकारी देते हुए उनके पोते विवेक कुमार बेरा ने उक्त बातें बताई. विवेक ने आगे बताया कि झारखण्ड आन्दोलन के दौरान इनकी सक्रियता बढ़ी. जयपाल सिंह के नेतृत्व में फिर झारखण्ड पार्टी बनी. उसमें जुड़े. एन ई होरो के काफी करीबी थे. इसी तरह आन्दोलन आगे बढ़ा. कई बार उन्होंने आन्दोलन के दौरान पुलिस की लाठियां भी खाई और जेल भी गए. दिल्ली स्थित सांसद भवन भी गए अलग राज्य की मांग के लिए. जमशेदपुर पूर्वी एवं दक्षिण अंचल के वे अध्यक्ष भी रहे. झारखण्ड पार्टी का कार्यालय उन्हीं के घर पर था.
छोलागोड़ा में बिरसा मुंडा मेमोरियल स्कूल की स्थापना
सारजोमदा के छोलागोड़ा में बिरसा मुंडा मेमोरियल स्कूल की स्थापना में बेरा जी का अहम योगदान था. इसके अलावे सारजोमदा सेंटर में भी स्कूल बनवाया. सारजोमदा से सोपोडेरा के बीच एक समय इनके प्रयास से दो पुलिया का निर्माण और कई सारे स्कूल, सड़क, नालियों एवं जाहेरथान के निर्माण में भी मुख्य रूप से इनका योगदान रहा है. धीरेन्द्र चन्द्र बेरा ने सैकड़ों गरीब बेटियों की शादी और किसी ज़रूरतमंद की मदद करने में दो कदम आगे बढ़कर काम किया. झारखण्ड के आदिवासियों एवं मूलवासियों के हक़ के लिए वे हमेशा आवाज़ उठाते रहे.
झारखण्ड मजदूर संघ का गठन
इसी क्रम में डी.सी. बेरा को टाटा में केबुल कंपनी में नौकरी लगी. फिर गोलमुरी में झारखण्ड मजदूर संघ का गठन किया और स्थानीय बेरोजगारों को नौकरी दिलवाने के लिए पहल की. झारखण्ड मजदूर संघ के ये अध्यक्ष भी रहे. आगे चलकर केबुल कंपनी बंद हो जाने से तमाम कर्मियों की माली हालत ख़राब होने लगी. धीरेन्द्र बेरा को भी जीवन के उत्तरार्ध में काफी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा. मुश्किल वक़्त में फिर कोई नहीं आया उनकी मदद करने. आज भी उनके परिवार की दशा अच्छी नहीं है. वर्त्तमान समय में जब झारखण्ड अलग हो गया है, यहां के स्थानीय सांसद, विधायक और अन्य सक्षम लोग इनकी मदद करने की बात तो दूर, इनकी सुधि भी नहीं लेते. यह सब बताते हुए उनके पोते विवेक भावुक हो गए. उन्होंने कहा कि अब तो हमें आदत पड़ गई है मुश्किलों में जीने की.
शशांक शेखर विगत 30 वर्षों से पत्रकारिता, आकाशवाणी व सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं साथ ही लघु/फीचर फिल्मों व वृत्त चित्रों के लिए कथा-लेखन का कार्य भी विगत डेढ़ दशकों से कर रहे हैं. मशाल न्यूज़ में पिछले लगभग ढाई वर्षों से कार्यरत हैं.
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