मोदी सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर कोई कमेटी बनाई हैं. कमेटी में कौन- कौन सदस्य होगा इसका नोटीफ़िकेशन थोड़ी देर में जारी होगा. यह कदम सरकार द्वारा 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र बुलाए जाने के एक दिन बाद आया है, जिसका एजेंडा गुप्त रखा गया है. बीते कुछ वर्षों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की वकालत मजबूती से करते आए हैं.
अब इस पर विचार करने के लिए रामनाथ कोविंद को जिम्मेदारी सौंपने का निर्णय, चुनावी दृष्टिकोण के मेजबान के रूप में सरकार की गंभीरता को प्रदर्शित करता है. नवंबर-दिसंबर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और इसके बाद अगले साल मई-जून में लोकसभा चुनाव होंगे. वहीं वन नेशन, वन इलेक्शन कमेटी के बारे में प्रतिक्रिया देते हुए शिवसेना (उद्धव गुट) के अनिल देसाई ने कहा,’मुझे मीडिया के माध्यम से जानकारी मिल रही है.
इस तरह की बातें फैलाना ठीक नहीं है. 5 राज्यों में चुनाव होने वाले हैं सरकार को ये देखना चाहिए कि देश के लोग क्या चाहते हैं, उनके मत को भी ध्यान में रखना चाहिए.’
आपको बता दें कि सरकार ने 18 से 22 सितंबर तक लोकसभा और राज्यसभा का विशेष सत्र बुलाया है जिसमें 5 बैठकें होंगी. कहा जा रहा है कि सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) और महिला आरक्षण बिल भी पेश कर सकती है. एक देश-एक चुनाव की वकालत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर चुके हैं. इस बिल के समर्थन के पीछे सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा रहा है कि इससे चुनाव में खर्च होने वाले करोड़ों रुपये बचाए जा सकते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई मौकों पर वन नेशन-वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं. इसके पक्ष में कहा जाता है कि एक देश-एक चुनाव बिल लागू होने से देश में हर साल होने वाले चुनावों पर खर्च होने वाली भारी धनराशि बच जाएगी. बता दें कि 1951-1952 लोकसभा चुनाव में 11 करोड़ रुपये खर्च हुए थे जबकि 2019 लोकसभा चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपये की भारी भरकम धनराशि खर्च हुई थी. पीएम मोदी कह चुके हैं कि इससे देश के संसाधन बचेंगे और विकास की गति धीमी नहीं पड़ेगी.
एक देश- एक चुनाव के समर्थन के पीछे एक तर्क ये भी है कि भारत जैसे विशाल देश में हर साल कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं. इन चुनावों के आयोजन में पूरी की पूरी स्टेट मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन यह बिल लागू होने से चुनावों की बार-बार की तैयारी से छुटकारा मिल जाएगा. पूरे देश में चुनावों के लिए एक ही वोटर लिस्ट होगी, जिससे सरकार के विकास कार्यों में रुकावट नहीं आएगी.
एक देश-एक चुनाव का समर्थन करने वालों का कहना है कि देश में बार-बार होने वाले चुनावों की वजह से आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है. इससे सरकार समय पर कोई नीतिगत फैसला नहीं ले पाती या फिर विभिन्न योजनाओं को लागू करने में दिक्कतें आती हैं. इससे यकीनन विकास कार्य प्रभावित होते हैं. यह भी है कि इससे कालेधन और भ्रष्टाचार पर रोक लगने में मदद मिलेगी.
चुनावों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों पर ब्लैक मनी के इस्तेमाल का आरोप लगता रहा है. लेकिन कहा जा रहा है कि यह बिल लागू होने से इस समस्या से बहुत हद तक छुटकारा मिलेगा. केंद्र सरकार भले ही एक देश-एक चुनाव के पक्ष में हो लेकिन इसके विरोध में भी कई मजबूत तर्क गढ़े जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि अगर ये बिल लागू होता है तो इससे केंद्र में बैठी पार्टी को एकतरफा लाभ हो सकता है.
अगर देश में सत्ता में बैठी किसी पार्टी का सकारात्मक माहौल बना हुआ है तो इससे पूरे देश में एक ही पार्टी का शासन हो सकता है, जो खतरनाक होगा.
इसके खिलाफ एक तर्क यह भी बताया जा रहा है कि इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच मतभेद और ज्यादा बढ़ सकता है. कहा जा रहा है कि एक देश-एक चुनाव से राष्ट्रीय पार्टियों को बड़ा फायदा पहुंच सकता है जबकि छोटे दलों को नुकसान होने की संभावना है. अगर एक देश-एक चुनाव बिल के तहत पूरे देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराए जाएंगे तो इससे पूरी-पूरी संभावना होगी कि चुनावी नतीजों में देरी हो सकती हैं. चुनावी नतीजों में देरी से यकीनन देश में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी, जिसका खामियाजा आम लोगों को भी भुगतना पड़ेगा.
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